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बातचीत करते रहेंगे; जितने बदमाश हैं, वे बदमाशों की निंदा को रहेंगे; जितने कामातुर हैं, वे काम की निंदा करते रहेंगे। जो भीतर भरा है, हम उसे बाहर प्रोजेक्ट करते हैं।
बर्ट्रेड रसल ने कहीं कहा है, कि जब कोई आदमी बहुत जोर से चिल्लाये कि वह जा रहा है चोर, पकड़ो, पकड़ो, चोरी हो गई, बहुत बुरा हो गया, तो पहले उस आदमी को पकड़ लेना; क्योंकि यह आदमी आज नहीं तो कल चोरी करेगा।
हम अक्सर अपनी बीमारियों को, अपने चित्त के रोगों को दूसरे पर आरोपित कर लेते हैं। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर एक आदमी किसी दूसरे आदमी की निंदा करता हो, तो जिसकी निंदा करता है उसके संबंध में बहुत कुछ नहीं बता पाता है, अपने संबंध में बहुत कुछ बता देता है। उसकी निंदा खबर देती है कि वह क्या प्रोजेक्ट कर रहा है। उसके भीतर कोई लड़ाई जारी है, जिस लड़ाई को वह किसी पर रोप देता है। अगर भीतर कोई लड़ाई जारी न रहे, तो बाहर रोपने का उपाय बंद हो जाता है। बाहर कोई उपाय नहीं है रोपने का ।
मनुष्य का चित्त खंडित है । यह उसकी कुंठा का जन्म है। और मनुष्य का चित्त यदि अहिंसक होने लगे, तो अखंड होगा, एक हो जायेगा । और जब चित्त एक हो जाता है, उसमें जब भिन्न स्वर नहीं रह जाते हैं, तो मनुष्य के जीवन में जो आनंद का नृत्य शुरू होता है, जो आनंद की बांसुरी बजती है, उसी बांसुरी के रास्ते लोग परमात्मा तक पहुंच जाते हैं। किसी और रास्ते से न पहुंचे हैं, न पहुंच सकते हैं।
ओशो, इसी सिलसिले में आगे एक छोटा-सा प्रश्न है कि हिंसा की स्थिति में और अहिंसा की स्थिति में जीवन-ऊर्जा, लाइफ फोर्स की अवस्था में क्या फर्क हो जाता है ?
पहाड़ों से बहता हुआ पानी भागता है नीचे की तरफ; खड्ड खोजता है, खाई खोजता है, झील खोजता है; पानी अधोगमन करता है, नीचे की तरफ भागता है । फिर यही पानी उत्तप्त होकर भाप बन जाता है। तब आकाश की तरफ दौड़ने लगता है। यही पानी ऊंचाइयां खोजने लगता है, बादलों की छातियों पर सवार होने लगता है, सूरज की यात्रा करने लगता है। पानी वही है, ऊर्जा वही है, एनर्जी वही है, लेकिन रूपांतरण हो गया, क्रांति घटित हो गयी ।
हिंसक - चित्त खाई - खड्डे खोजता है, नीचे की तरफ बहता है। अहिंसक - चित्त वाष्पीभूत हो जाता है, पर्वत-शिखर खोजने लगता है, आकाश की यात्रा शुरू हो जाती है, ऊपर की उड़ान शुरू हो जाती है, सूर्य की यात्रा पर निकल जाता है, मोक्ष और परमात्मा की दिशा में उन्मुख हो जाता है।
हिंसक - चित्त सदा दूसरे को खोजता है; दूसरा ही खाई है, द अदर इज़ द एबिस । अहिंसक - चित्त अपने को खोजता है । स्वयं को खोजना ही ऊंचाई है। क्योंकि दूसरे को जब भी हम खोजेंगे, तभी हम नीचे की तरफ चल पड़े। जब भी हम दूसरे को खोजेंगे, तभी हम नीचे की तरफ चल चुके। क्यों? क्यों मैं कहता हूं कि दूसरा ही खाई है, दूसरा ही अधोगमन
ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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