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________________ हमारे पास भी मन है, लेकिन शायद एक वचन में बोलना ठीक नहीं है। कहना चाहिए, हमारे पास मन हैं—मन है नहीं। हम पोली साइकिक हैं, यूनी साइकिक नहीं। हमारे पास एक मन नहीं है, हमारे पास बहु-मन हैं। एक-एक आदमी के पास बहुतेरे मन हैं। साधारणतः हम सोचते हैं कि एक ही मन है हमारे पास, गलत सोचते हैं। अभी तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जुंग कहता है और दूसरे मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि मनुष्य पोली साइकिक है, बहुचित्तवान है। लेकिन यह जानकर हैरानी होगी कि महावीर ने बहुचित्तता का पहली बार प्रयोग किया था पच्चीस सौ साल पहले। महावीर ने कहा था, मनुष्य बहुचित्तवान है, पोली साइकिक है। एक चित्त नहीं है आदमी के भीतर, बहुत चित्त हैं। इसीलिए तो सांझ आप तय करते हैं कि कल क्रोध नहीं करूंगा और कल क्रोध करते हैं। आप सोचते हैं, मैं कैसा हूं? कल मैंने तय किया और आज फिर क्रोध करता हूं! संध्या पछताता हूं, सुबह फिर क्रोध करता हूं! ___ आदमी रोज नई-नई भूलें नहीं करता, वही-वही भूलें बार-बार करता है जिनके लिए हजार बार पछता चुका है, पश्चात्ताप कर चुका है। कारण क्या है? असल में, जो चित्त क्रोध करता है और जो चित्त निर्णय करता है, वे दो चित्त हैं। उन्हें एक दूसरे की खबर भी नहीं मिलती है। उनके बीच कम्यूनिकेशन भी नहीं है। ___ जब आप तय करते हैं कि अब मैं क्रोध नहीं करूंगा, तो यह चित का एक खंड है जो तय कर रहा है। समझ लें 'अ' तय कर रहा है, और कल सुबह जब उठकर पत्नी पर आप टूट पड़ते हैं, तो यह 'ब' क्रोध कर रहा है। 'ब' के हटते ही 'अ' फिर लौट आता है और पश्चात्ताप करता है कि तय किया था, क्रोध नहीं करूंगा, फिर क्रोध क्यों किया? फिर सांझ को पैर पर जरा जूता लग जाता है किसी का, बस 'ब' सामने आ जाता है और फिर क्रोध प्रकट करता है, 'अ' पीछे हट जाता है। जैसे कि साइकिल के चक्के पर स्पोक ऊपर-नीचे घूमते रहते हैं, ऐसे ही प्रतिपल आपके भीतर चित्तों का परिवर्तन होता रहता है। क्योंकि बहुत चित्त हैं आपके भीतर। गुरजिएफ कहा करता था कि मैंने एक ऐसे घर के संबंध में सुना है, जिसका मालिक कहीं दूर यात्रा पर गया था; बहुत बड़ा भवन था, बहुत नौकर थे। वर्षों बीत गए, मालिक की खबर नहीं मिली। मालिक लौटा भी नहीं, संदेश भी नहीं आया। धीरे-धीरे नौकर यह भूल ही गए कि कोई मालिक था भी। भूलना भी चाहते हैं नौकर कि कोई मालिक है, वे भी भूल गये! जब कभी कोई यात्री उस महल के सामने से गुजरता और कोई नौकर सामने मिल जाता, तो वह उससे पूछता, कौन है इस भवन का मालिक ? तो वह नौकर कहता, मैं। लेकिन आस-पास के लोग बड़ी मुश्किल में पड़े, क्योंकि कभी द्वार पर कोई और मिलता और कभी कोई, बहुत नौकर थे और हरेक कहता कि मालिक मैं हूं। जब भी कोई पूछता कि कौन है मालिक इस भवन का? तो नौकर कहता, मैं। जो मिल जाता वही कहता, मैं। आस-पास के लोग बड़े चिंतित हुए कि कितने मालिक हैं इस भवन के! फिर एक दिन गांव के सारे लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने पता लगाया, और सारे घर के ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया 122 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004032
Book TitlePanch Mahavrat Pravachan aur Prashnottari - Jyo ki Tyo Dhari Dinhi Chadariya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year2012
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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