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और दूसरा भी खयाल ले लेना जरूरी है कि जब व्यक्ति के चित्त से हिंसा विदा हो जाती है, तो ये ग्रंथियां जिन्होंने हिंसा को सहयोग दिया था; ये ग्रंथियां जिनके विष और मादकतत्व फैलकर मनुष्य को विक्षिप्त करते रहे थे; इनके संगृहीत-स्रोत मनुष्य के जीवन में नई तरह की रासायनिक क्रांति लानी शुरू कर देते हैं। ___ महावीर के संबंध में कहा जाता है कि उनके पसीने से दुर्गंध नहीं आती थी। यह बात कहानी मालूम होगी। लेकिन बहुत अवैज्ञानिक बात नहीं है। यह संभव है। महावीर के शरीर से सुगंध आती रही हो, न आती रही हो, लेकिन आज नहीं कल मनुष्य के शरीर से सुगंध आ सकती है। क्योंकि जहां से भी दुर्गंध आ सकती है, वहां से सुगंध आ सकती है। सब सुगंधे, दुर्गंधों का रूपांतरण हैं- इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। खाद डाल देते हैं बगीचे में, और फूल सुगंधों से भर जाते हैं। और आज हजारों तरह की जो सुगंधे बाजार में बिकती हैं, अगर उनके बनाने के कारखाने में जायें तो पता चलेगा कि सुगंध, दुर्गंध का ही रूपांतरण है।
अगर शरीर दुर्गंध फेंक सकता है विशेष स्थितियों में, तो कोई कारण नहीं मालूम होता कि विशेष स्थितियों में सुगंध क्यों नहीं फेंक सकेगा! मैं आपको कहता हूं कि महावीर की कथा, कथा नहीं है। शरीर ने सुगंध बहुत बार फेंकी है, आज भी फेंक सकता है। अगर चित्त परा रूपांतरित हो जाये और शरीर में इकटे ये जो विषाक्त संग्रह हैं. अगर इनका उपयोग बंद हो जाये; ये बढ़ते चले जायें और इनका उपयोग बंद हो जाये, तो एक बड़ी मजे की घटना घटती है, क्वांटिटेटिव चेंज टर्न्स इनटू क्वालिटेटिव चेंज। जैसे ही परिमाण का अंतर पड़ता है, वैसे ही गुण का अंतर शुरू हो जाता है। निन्यानबे डिग्री और सौ डिग्री में कोई फर्क नहीं है, सिर्फ मात्रा का फर्क है। लेकिन निन्यानबे डिग्री तक पानी पानी होता है, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है। फर्क क्वांटिटी का है, लेकिन अंततः क्वालिटी का हो जाता है।
सब क्वालिटेटिव चेंज, सब गुणात्मक परिवर्तन मूलतः मात्रा के परिवर्तन हैं। अगर शरीर में ये जो विषाक्त द्रव्य अब तक दुर्गंध फैलाने का काम करते रहे हैं, यदि एक मात्रा से ज्यादा मात्रा में इकट्ठे हो जायें, तो रूपांतरित हो जाते हैं, और शरीर से सुगंध फैलनी शुरू हो जाती है।
अहिंसा की अपनी सुगंध है; हिंसा की अपनी दुर्गंध है। प्रेम की अपनी सुगंध है; काम की अपनी दुर्गंध है। सत्य की अपनी सुगंध है; असत्य की अपनी दुर्गंध है। इसलिए मैं बायोकेमिकली आदमी को अहिंसक बनाने के पक्ष में नहीं हूं। आध्यात्मिक अर्थों में मनुष्य अहिंसक बने, तो उसकी बायोलाजी भी और उसकी बाडी केमिस्ट्री भी रूपांतरित होती है और जिनसे सदा दुर्गंध मिली थी, उनसे सुगंध की सौरभ भी फैलनी शुरू हो जाती है।
एक और बात पूछी है। पूछा है कि साइकिक एनोटामी, मनस-संरचना की दृष्टि से हिंसा को रोग कहने का क्या अर्थ हो सकता है? ___ मानसिक संरचना की दृष्टि से हिंसा, मन का खंड-खंड में टूट जाना है; डिसइंटीग्रेशन है। अहिंसा, इंटीग्रेशन है; मन का अखंड हो जाना है।
अहिंसा (प्रश्नोत्तर) 121
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