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गया। दूसरी चित्त-दशा शुरू हो गयी। अगर हम स्वप्न में जाग जायें तो स्वप्न तत्काल टूट जाता है, और हम स्वप्न के बाहर हो जाते हैं। जिस चित्त की अवस्था में हम जी रहे हैं, वह जो कांशस माइंड है हमारा। अगर उसमें हम जाग जायें तो हम अचेतन मन में उतर जाते हैं। अनकांशस में उतर जाते हैं।
और इसके पहले कि मैं समझाऊं कि कैसे जागें, यह भी आपको समझा दूं कि जितने हम नीचे गहरे उतरते हैं, उतने ही हम ऊपर भी उठते जाते हैं। जीवन का नियम ऐसा ही है, जैसा वृक्षों का नियम है। जड़ें नीचे जाती हैं, वृक्ष ऊपर जाता है। साधना नीचे जाती है, सिद्धि ऊपर जाती है। जितनी गहरी जड़ें नीचे उतरने लगती हैं, उतने ही वृक्ष आकाश को छूने ऊपर बढ़ने लगता है। वह जो फूल खिलते हैं आकाश में उनका आधार नीचे पाताल में चली गयी जड़ों में होता है। अगर वृक्ष को ऊपर बढ़ना है तो उसे नीचे भी बढ़ना पड़ता है। उल्टा लगेगा, ऊपर बढ़ने के लिए नीचे भी बढ़ना पड़ता है। साधना सदा नीचे ले जायेगी, गहराइयों में, और सिद्धि सदा ऊपर उपलब्ध होगी, ऊंचाइयों में।
साधना एक डेप्थ है, गहराई है; और सिद्धि एक पीक है, ऊंचाई है। अपने में ही जो नीचे उतरेगा वह अपने में ही ऊपर जाने की उपलब्धि को पाता चला जाता है। सीधे ऊपर जाने का उपाय नहीं है। सीधे तो नीचे जाना पड़ेगा। कांशस से अनकांशस में, अनकांशस से कलेक्टिव अनकांशस में, कलेक्टिव अनकांशस से कॉस्मिक अनकांशस में। और प्रतिबार जब आप चेतन से अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ऊपर का भी एक दरवाजा खुल गया-सुपर कांशस का, अतिचेतन का दरवाजा खुल गया। जब आप कलेक्टिव अनकांशस में जायेंगे तो पायेंगे, ऊपर का एक दरवाजा और खुल गया-वह जो समष्टिगत चेतन है, उसका दरवाजा खुल गया। जब आप कॉस्मिक अनकांशस में जायेंगे, ब्रह्म अचेतन में जायेंगे तब अचानक आप पायेंगे कि ब्रह्म चेतन का. कॉस्मिक कांशस का दरवाजा भी खुल गया। जितने आप गहरे उतरते हैं उतने आप ऊंचे उठते जाते हैं। इसलिए ऊंचाई की फिक्र छोड़ दें, गहराई की फिक्र करें। जिस जगह हम हैं वहां से हम कैसे जागें।
अगर कोई आदमी पछे कि हम तैरना कैसे सीखें? तो उसे हम क्या कहेंगे? उसे हम कहेंगे, तैरना शुरू करो। वह कहेगा, अभी मैं तैरना जानता ही नहीं तो शुरू कैसे कर सकता हूं? तब एक बड़ी उलझन पैदा होगी।
अगर मैं आपको नदी के किनारे ले जाऊं और कहूं कि मैं आपको तैरना सिखाता हूं तो आप कहेंगे, मैं तब तक पानी में नहीं उतरूंगा जब तक मैं तैरना न सीख लूं। और आपका तर्क सही होगा। सभी सही दिखाई पड़ने वाले तर्क जरूरी रूप से सत्य के निकट ले जाने वाले नहीं होते। आपका तर्क बिलकुल सही है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, मैं पानी में कैसे उतरूं? पहले मुझे तैरना सिखा दें, फिर मैं पानी में उतर जाऊंगा। यह बिलकुल तर्कयुक्त, लॉजिकल दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि जब तक आप पानी में न उतरें तब तक तैरना कैसे सीख सकते हैं? जब आप पानी में उतरेंगे तभी तैरना सीख सकते हैं। अगर पानी में उतरने को राजी नहीं हैं तो तैरना सिखाया नहीं जा सकता। मेरा तर्क भी
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