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नहीं कर रहा हूं, दिन की नींद की बात कर रहा हूं। हम जागे हुए भी सोये हुए हैं। चौबीस घंटे हम सोये हुए हैं। कभी-कभी किसी खतरे के क्षण में थोड़ी देर को जागरण आता है, अन्यथा नहीं। ___ अगर मैं एक छुरा अचानक आपकी छाती पर रख दूं तो एक क्षण को आप जाग जायेंगे। उस क्षण में आप सोये हुए नहीं होंगे। क्योंकि इमरजेंसी, संकट का क्षण होगा वह। उस वक्त सोये रहना खतरनाक है। अगर अचानक छाती पर कोई छुरा रख दे तो एक क्षण को कोई चीज आपके भीतर, जो सोयी थी, एकदम जागेगी। तब आप भी न रह जायेंगे, छुरा रखने वाला भी न रह जायेगा, सिर्फ चेतना रह जायेगी जो छुरे के रखने को जान रही है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं चलेगा, यह बहत क्षणिक होगा। तत्काल भय पकड लेगा. भागने लगेंगे. सब खो जायेगा, फिर आप सो जायेंगे।
कभी किसी खतरे के क्षण में, एकाध क्षण को हम जागते हैं। अगर आम आदमी की जिंदगी में जागने के क्षणों का हिसाब लगाया जाये तो अस्सी वर्ष की उम्र में आठ क्षण भी खोजना कठिन है जब वह जागा हआ हो। इसलिए हमारे मन में खतरे की भी एक इच्छा पैदा होती है। खतरे में भी थोड़ा रस आने लगता है, क्योंकि खतरे में हम जागते हैं। खतरे की एक अपनी सेंसिटिविटी है। ___एक आदमी जुए पर दांव लगा देता है। लाख रुपये लगा दिये उसने। अब एक क्षण को वह जागेगा, जब तक यह तय नहीं होता कि हार गया या जीत गया। क्योंकि इतना संकट का क्षण है कि उसकी श्वास रुक जायेगी, उसकी चेतना ठहर जायेगी, और वह प्रतीक्षा करेगा कि क्या हो रहा है। इतना संकट का क्षण है कि वह सो नहीं सकता। शायद आपको पता नहीं होगा कि जुए का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। खतरे का आकर्षण जागने के रस से ही आता है। हम हजार तरह के खतरे चुनते हैं, हजार तरह के जुए चुनते हैं, जिनमें हम क्षण भर को जाग पाते हैं। लेकिन वह इतनी क्षणिक घटना है कि हम जाग भी नहीं पाते हैं और फिर सो जाते हैं। और फिर नींद शुरू हो जाती है। इन आकस्मिक उपायों से कोई कभी पूरी तरह जाग नहीं सकता। लेकिन आपको समझाने के लिए मैं कह रहा हूं कि आपको यह प्रमाद की सोयी हुई अवस्था खयाल में आ जाये। अगर आपको यह स्मरण आ जाये कि आप सोये हुए आदमी हैं, और ऐसे काम कर रहे हैं जो नहीं करना चाहते; इस तरह जी रहे हैं, जैसे नहीं जीना चाहते; इस तरह बैठ रहे हैं, उठ रहे हैं, जैसे नहीं उठना-बैठना चाहते; इस तरह के आदमी बनते जा रहे हैं, जिस तरह के नहीं बनना चाहते।
मार्क ट्वेन ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, लिखा है कि मैं एक कहानी लिख रहा था और कहानी में मैंने तय किया था कि कौन-कौन सा पात्र क्या-क्या काम करेगा। लेकिन जब कहानी पूरी हुई तो मैंने देखा कि पात्रों ने वह काम तो किया ही नहीं, पात्रों ने तो दूसरा काम कर डाला है। तब मार्क ट्वेन ने लिखा, ऐसा लगता है कि मेरे द्वारा पात्र जन्मे जरूर, लेकिन धीरे-धीरे वे स्वतंत्र हो गये और कुछ ऐसे काम करने लगे जो कि मैं नहीं चाहता था। नायक से जो करवाना चाहता था वह न करके वह कुछ और करने लगे तो अब नायक
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ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
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