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________________ जयवंतरिकृत ओक अपराध आगइ कर्यु, तेहथी चूकां कंत, ताहरु कहण करू वली, तु दुख हुइ महंत. २१२ तं निसुणी रयणायरइं, पूछइ वहूनई वत्त, वायस वयसह नीच ए, ओह स्युं केही वत्त. २१३ शीलवती एहवू सुणी, वलतु उत्तर देई, तातजी मुरख किम कहु, पणि नवि बुझतु भेय. २१४ माणस पहि पंखी भला, जे हूइ सुगुण सुविध्ध, कुगुण कुवेधां माणसां, कां किरतारइं किध्ध. २१५ जेह सरि पीइ दीप जल, तीह न पूंछी देअंत, माणस पहइं के मोरडा, रूडा कयन्न होति. २१६ रूपइं रूडा सूडिला, गुण जाणेवइ मोर, प्रीतई पारेवां भलां, माणस नहों पण ढोर. २१७ ए सरखु जगि कोइ नहीं, वाहलां मेलणहार, संदेसु सुघउ कहइ, पंखी नइ अवतारि. २१८ शुकन-शास्त्रमा एहना, बोल्या छेइ गुण जेह, मुज मुखि एक ज जीभडी, नवि कहिवाइ तेह. २१९ अभ्यागत १ अदभूत कहइ २, मेहागम ३ अशोभन्न ४, मीढुंभोजन ५ रौद्रभय ६, शोभन ७ नइ भयचहिन ८ २२० प्रहर १ तस्कर १ कलह २ मेहागमन ३ इष्टागमन ४, विरूप ५ कलह ६ राजप्रसाद कहइ ७ बोली महाभयरुप ८ २२१ प्रहर २ अशुभ १ अनिइ मृत्तवत्तडी २, अभ्यागत ३ धनलाभ ४, मेहागमन ५ रायमान दिइ ६, राजविडूर ७ वस्त्रलाभ ८. २२२ प्रहर ३ देह-व्याघि १ भय २, सुख कहइ ३ मन चीत्या फल होइ ४, राजभय ५ भयवात्त किहइ ६, मेह ७ अभ्यागत कोइ ८. २२३ प्र०४ ब्रह्मस्थान कि रुयडी, चिहु ए पुहुरे वाणि, पूर्वादिक दिसि चिहु पहरि, सृष्टिई गणे सुजाण.' २२४ घर उपरि ऊंचइ चडी, काक करइ कक-वाणि, इष्ट-समागम तु हुइ, घन-आगम वली जाणि. दद शबदई दुःस दोहिडं, ख स शबदई आहार, कु कु धननाश करइ वली, ट ट ट ट मृत्यु विचार. बंधु-संहरे हहइ हुइ, गगइ वली भूमि-लाभ, घधइ कारय-सिद्धि हुइ, ए स्वर तणउ विचार. २२७ मारगि जोतां माणसां, सनमुख वायस होइ, . तिणि मारगि नवि जाइवु, जाइ तु न वलइ सोइ. २२८ For Personal & Private Use Only Jain Education Interational www.jainelibrary.org
SR No.004029
Book TitleShrungarmanjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai V Sheth
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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