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________________ शृंगार मंजरी लोक हसु दुरियन क, वरि ए जीवित जाउ, वाहाला मांणस कारणिं, जे भावइ ते थाउ. दसशर दस शिर नोंगमियां, जनक- सुता सिउं रत्त, तु प्रिय मांणस कारणि, एक शिरनी सी . वत्त. १४५७. वरि ए प्राण गया भला, गुणवंता सिउँ प्राण भवंतरि पामोइ, वेधि, पण नवि लहोइ सुवेध. १४५८ अविचल उत्तम प्रीति, प्राग धरइ कुग चोंति. १४५९. जां लगि ते न मिलति, भांतरि झूरि मरंति. १४६० बाहिरि धूम न होइ . कुग उल्हावइ सोइ. चंचल जीवित प्राग ए, अविहड उत्तम कारण, जस मन लागू जेहसिउं हाथी चूकु विंझ जिम, मन भरि कोउ जलइ मन गमतां वाहाला विना, इध विग बलवूं बलइ, अगवेचि परवसे काया, जग जागइ जिमता नयी, वाहाला सिउ जस वेबडु, लोक अयाग अबूज ए, पण मन माहिली वेदना, विस सोयर चंडु दहइ, अन्न न भावइ विना, अनंगदेव जाणो इसीउँ, भूपति भेटि करो वली, प्रिय देखी मन उल्लसइ, तेहना घरना दास जे, नितु नितु आवइ रायहरि, इणि परि तेणइ धूरतिं, घरि वरी सिउं मंडोइ, काज करेवी आपणउं, भय नेह Jain Education International सहिजि सुजन जीगंग, ते किन बाहिरि वाहालां विग तनु कंपाइ, कीया जि माइ १४६२ प्राण सरव उपाय तेहनि, जउ हूँ मिलूं एक बार, रहइ तु माहारा, नहींतरि थाई छाहार. १४६६ मनवंछित तु पामोइ, जउ कर वरसइ दानि, उपार्जन आ वारनी, एहनी पूठि जाणि. १४६७ वसु प्रीति करइ उपाय, विग नवि जाई. १४६४. चंदन विसहर संगि जल सिउं नहीं मनरंग. १४६५ वालइ मांडी १४५६ अहांइ किसिउ संदेह, तेहसिउँ कृत्रिम कीजइ , थाइ चंग १४६३ १४६१ अपुरव लेइ, अधिक मांडइ. १४६८ प्रीति अपार, कोडि प्रकार. अधिक सनेह. १४६९ For Personal & Private Use Only भूपति चित्ति, अधिको प्रोति. १४७० १४७१ -१११ www.jainelibrary.org
SR No.004029
Book TitleShrungarmanjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai V Sheth
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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