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________________ ८६ जयवंतसूरिक्त दीहा वज्ज सरीसडा, दैवि कीया कराल, तु रयणी सिहानी घडी, विरही-माणस काल. १०७५ दैव आरांधिउ एक मनि, विरहइं पुत्व-भवेण, वरस समांणी अध-घडी, दीधी पणि वंकेण. १०७६ दुखीयां तणे नीसासडे, दीहा न बलइ काइ, विरही-माणस शापवइ, रयणी गली न जांइ. १०७७ विरहिं वाघइ पापिणी, संगमि वहित विहाइ, ए निःकारण वइरणी, रयणी फीटउ माइ. १०७८ रे विह सुणी एक वत्तडी, कइ मुज सज्जन मेलि, कइ दिन रयणी मूलसिंउं, सायर मांहि मेहेलि. १०७९ टलवलतां निसि नीगर्भू, पापी दिवस न जाइ, दिन झुरंतां जउ गलइ, विहाणउं नवि होइ. १०८० दिवस बलु रयणी गलु, जीविय वीज पडेउ, सजन सिउं मेलावडु, जउ हय विहि न करइ. १०८१ हूं तुह्म पूछउं हे सही, उत्तर दिउ मुज केण, राति दिवस बिमणां हवइ, पीय माणस विरहेण. १०८२ सजन मन भोंतरि बसइ, मिलीउं जीविं जीव, तीह जीविय जे दीहठो, दुणा कियतें दैवि. १०८३ सजन मांसण विछोहीयां, घण-नीसासा होइ, तेह भणी दिन रातडी, अखय अनीठी होय. १०८४ पीउ मण वसतइ मिलहिउं, नाण अनुव्ववियोइ, अम्माणू जाणूं नहीं, परि पिछउं पण लोइ. १०८५ पंजर मूंकी मन भमइ, किंहिं न विरहेण करेइ, जिम फल लोभिं सूडली, अहि-निसि फेरा देइ. १०८६ नीसासु ऊजागरु इसाऽरति आरति, ' भूखा तरस तनु तनु हवइ, विरही लक्षण मित्त. १०८७ विरह थकी वरि विख भलूं दुख नवेइ खीण रे, पणी दवनी परि नितु बलइ, पापी विरह-विकार. १०८८ विरह थकी वरि विख भलूं जेहनइ माणस खाइ, पापी विरह बीहामणउ, जे माणसनइ खाइ. १०८९ विरह थकी वरि विख भलं, खावू मारइ जेह, विखथी विरह नहीं भलु, अण-खाधु मारेइ. १०९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004029
Book TitleShrungarmanjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai V Sheth
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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