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जयवंतसूरिकृत
निस-नेही नेह छांडीय, प्रिय आगलि थइ जाइ, सोइ भुजंग उलंभडा, ऊभू दिइ वन माहि, वीज पडइ ते उपरि, जे करि छंडइ प्रीति, नेह करी किम छंडीइ, एह न उत्तम रीति. ६०९ प्रीउडइ छेहडइ पटुली ताणी, सखी माहिं गोरी लजवाणी, माणस मांहि प्रीउडु लाजसइ, एकातिं उलंभउ दीजसि. ६१० इणि परि तिणि वनि नव नव, नर नारीय रमंति, नंदनवन जाणे अवतरित्रं, भोगी भमर भमंति, सीलवती पति-संयुत रसभरि खेलइ रास, कुसुम-केलीहरि सरुवरि, रंगइ करइ विलास. __६११ कुसुम-टोडर करी कंठि धालइ, माहो मांहि नव नवा फूल आलइ, कमल-नाल पाणी भरी छांटइ, बाहु वडइ रंधी रहइ वाटइ. ६१२ नवल-नेह नव-यौवन नव-रस, नव-रस सरस अपार, नव-दिन मास वसंतना, मुरीय नब सहकार, वसंतमास इम सेवीय, नरनारी सविलासि, ससि-वयणी प्रीउ सरसी, आवइ आपणइ आवासि. ६१३ चतुर मानव अणी परि सेवइ, कामिनी यौवननां फल लेवइ, जयवंत पंडित वाणि सोहामणी, रसिकनइ मनि लागइ रलयामणी. ६१४
इति श्री वसंतवर्णन, श्रीः.
अणी परि नबनवां सुख भोगवइ, अजितसेन स्त्रीनुं मन जोगवइ, समयनी परि जाइ दिहाडला, जिन दौगंधक देव सुखाविला. ६१५
दुहा
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वाहलां सिंउ सुख विलसतां, दिन जाता न जणाइ, वाहलां विण जे अध-घडि, वरस समाणी थाइ. वहालां सरिस संजोगडु, अविहड करे सदैव, मन मानइ जो ताहरू, तु घन देवे दैव. पुरव पुण्य पसाउलइ, अविहङ होइ सनेहि, नितु झुरि, तिणि नेहलइ, जेहवु चतक मेह,
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