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शृंगारमजरी
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अजितसेन अति दुख धरइ, नयनि वछूटइ नीरि, विरह-सरोवर उलटिउं, केतो रंघई वीर. ४८६ केता समरु बोलडा, प्रेम तणा परवाह, दुख दारुण वज्रघातथी, जिम दावानल-दाह. ४८८ कुटुंब सहु तव बुजवइ, अधिक न कीजइ सोस, एहवी गति संसारनि, कुहुनइ दीजइ दोस ४८९ सुर सुरपति जिन चक्रधर, वासुदेव बलदेव, हरि-हर सूरगुरु असुर नर, चिरजीवी-न न केवि. ४९० राम रावण मुंज भोज नृप, सवि पुहुता परलोकि, चंचल गति संसारनी, कुहनु धरीइ शोक. ४९१ दुःख घरीइ कुण कारणिं, कहिसिउं कीजइ नेह, जे अविहड करी सारीइ, ते पणि आपइ छेह. ४९२ प्रेम सवे छइ कारिमा, अविहड दैइ म जाणि, घडीय न जाती जेह विण, ते विण धरीइ प्राण. ४९३ माणस केरां हेडलां, कठिन घडिया जिम लोह, फाटइ नहीं घण दुःख सहइ, वाहलां तणइ विछोहिं, ४९४ कहिनां दुःख संभारीइ, कहिन कीजइ सोस, झुरि म समरि सनेहडा, हइडा करि संतोष. ४९५ सांजिं जिम पंखी मिली, नव नव रंगी रमंति, कुण किहानु किहांथी मिल्यु, तिम सवि सज्जन हुति. ४९६ गुण संभारी सहू रडइ, सगपणि न रडइ कोइ, मेह जातां मोरा रडइ, पीछ जतां नवि जोइ. ४९७ सहुणा सरिस संयोगडा, क्षणमा हुइ विश्राल, वीज तणूं अजुआलडूं , न रहइ ते चिरकाल. ४९८ हइअडूं वन तणी परिं, फाटइ नहीं वियोगि, जे जे दुःख आवी पडई, ते ते सहिवू लोकि. ४९९ चंचल गति संसारनी, जांणि भूलि म जीव, शोक-संताप सवि परिहरि, घरम करु सदेव. ५०० थोडइ घणु प्रीछीलीइ, डाहा हुइ जेह, अस्थिर सिउंमन परहरी, स्थिर स्युं कीजई नेह. ५०१ चक्रवा-चकवी मेलीयां, सर लीधो कणलाह, जनपूजा पामी गपुं, न सोचियु दिणनाह. ५०२
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