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जयवंतसूरिकृत
ससिहर नाहानू पूजीइ, बालु-रवि वंदाइ, चिंतामणि हुइ नाहानडु, पण गुणि अधिकू थाइ. ४७१ गुणवंता गुणि राचीइ, रूपि न धरीइ रंग, वरि कंटाली-केवडी, सीबलि नहींअ सुरंग. ४७२ गुणवंता अरथी घणा, कुहुनि कहिसिउं रंग, जस मन बाधू जेहसिउं, तेहनि तेह सुचंग. ४७३ तरुवरि जायां वनि वसियां, सरस सुरगां फुल, जिहां जाइ तिहां मानीइ, गुण माटइं लहइ मूल. ४७४ रवि आवाइ नितु दूरिथी, हंसा पासि फिरंति, गुणवंत पंकज कारणई, केता सेव करंति. ४७५ भमर भमइ दुख नवि धरइ, परिमल वेधिउ फुलि, सुगुणां सज्जन सेवना, लाभइ केणइ मूलि. ४७६ ओ भमरउ ओ कमलिनी, ओ द्वाख्या ओ वीर, साधन सोविन-मूंदडी, ओ नर नवरंगा हार. ४७७ जां न चलइ तां अमीय-रस, नेह न क्षण महेलाइ, विचलिउ विखथी अधिकते, दीठइ मन उल्हाइ. ४७८ नवनव रसि सुख विलसतां, इम दिन गमीया केवि, देवतिनी परि सहू करइ, शीलवतीनी सेव. ४७९ रयणायर सूर सुंदरी, गोर-पयोधरि भार, हार तणि परि संपना, सुर सुंदरि भरतार. ४८० विहि वरांसिउ बिडं परिं, दोइ कलंक धरेइ, एक सरखू मेलइ नहीं, अनि नर रयण हरेइ. ४८१ जग-वल्लभ उपगार पर, सज्जन पुरइ आस, फटि रे निरगुण दैवते, कांइ न कीयां चिरास. ४८२ सुगुण सदुषण सरजीयां, हा हा ए विहि वंक, तुछ आयु कइ धन नहीं, अहवा होई कलंक. ४८३ थोडा वरसइ. मेहला, घणा करइ उपगार, संभारणुं सज्जन करइ, थोडइ घणूं संसारि. ४८४ थोडा बोलइ बोलडा, पालइ मेरू समान, सज्जन सुपुरिस चिंरज्यु, कीजइ कुण उपमानि ४८५ रंग देखाडी रस समी, मोह उपाइ जाय, जिम जिम समइ सांभरइ, तिम तिम काल ज कपाइ. ४८६
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