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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
“और उनका देशघाती रूप से अवस्थान रहना ही उपशम है", इस वाक्यांश का अर्थ इतना मात्र लेना कि “सत्ता में स्थित सर्वघाती स्पर्धकों की उदीरणा न होना।"
क्षयोपशम भाव में देशघाती स्पर्धकों के उदय के वक्त सत्ता में स्थित देशघाती सर्वघाती जो स्पर्धक हैं उनमें से भी देशघाती स्पर्धक की ही उदीरणा होगी । यानी उदीरणा भी सर्वघाती स्पर्धकों की नहीं होगी।
समाधान २० - स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति, स्याद् अस्ति नास्ति । यहाँ तीसरा भंग भी प्रथम दो धर्मों से भिन्न ही, किसी पृथक् ही तीसरे धर्म को कहता है, उक्त दोनों का मेल रूप नहीं । सातों भंगों द्वारा अलग-अलग धर्म कहे गए हैं।
समाधान २१ - कर्मशास्त्र में “वेद” से सर्वत्र भाववेद का ग्रहण किया गया है । जैसे “१०० पल्य पृथकत्व तक स्त्रीवेद का काल है", इसका अर्थ यह हुआ कि इतने काल तक भाव स्त्रीवेद का उदय (अर्थात् स्त्रीवेद नामक नोकषाय का उदय) एक जीव के रह सकता है । (धवल ४/४३७) और भी देखें महाधवल ७ तथा ६/१४९
समाधान २३ - अत्यन्ताभाव के उदाहरण - जीव के ज्ञानगुण का पुद्गल में, जीव का पुद्गल में, एक परमाणु का दूसरे परमाणु में, एक जीव का दूसरे जीव में अभाव अत्यन्ताभाव कहलाता है। ___अन्योन्याभाव के उदाहरण- यह दो भिन्न-भिन्न पुद्गलों की वर्तमान व्यंजन पर्यायों में लगता है। एक पुद्गल की व्यंजन पर्याय का अन्य पुद्गल की व्यंजन पर्याय में अन्योन्याभाव है। __कुछ विद्वान् मात्र पुद्गलों की वर्तमान पर्यायों में ही परस्पर में अन्योन्याभाव बताते हैं परन्तु हमारे चिन्तन से तो दो पृथक्-पृथक् जीवों की वर्तमान व्यंजन पर्यायों में भी अन्योन्याभाव है । जैसे मुझ मनुष्य से आपकी मनुष्य पर्याय में अन्योन्याभाव है । लेकिन द्रव्यपने की अपेक्षा तो आप (मनुष्य) का मुझ (मनुष्य) में अत्यन्ताभाव है । एक ही जीव के दो गुणों में परस्पर में कोई भी अभाव(अन्योन्याभाव, अत्यंताभाव,प्रागभाव या प्रध्वंसा भाव) घटित नहीं होता । वहाँ तो कथंचित् भेदाभेद है। ___ समाधान २४ - “हन्त । व्यवहारावलम्बन:” इस कथन में व्यवहार का अवलंबन छठे गुणस्थान तक(= विकल्प की भूमिका तक) है । बुद्धि पूर्वक व्यवहार का अवलंबन छठे गुणस्थान तक होता है। स्वस्थान अप्रमत्त संयत मुनिराज के भी निश्चय का अवलंबन ही है, व्यवहार का नहीं।
समाधान २५ - चौथे गुण में व्यवहार का अवलंबन भले ही हो, पर वहाँ पर भी
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