SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला के ज्ञान में न आवे, ऐसा वचन स्थूलतः सत्य होता हुआ भी, सूक्ष्म असत्य है । इसी तरह ९९.९ प्रतिशत शुद्ध सोने को १०० टंच शुद्ध कहना सूक्ष्म असत्य है ।" सर्वत्र यह तो जानना ही चाहिए कि प्रमत्त योग से बोला गया वाक्य असत्यता को प्राप्त है । अत: साधु इस निष्प्रमत्त भाव से ऐसा बोलते हैं कि “ भाई दिखने में तो आम पक्व प्रतीत हो रहा है, अंशापक्वता मुझे ज्ञात नहीं ।" समाधान १० - अभिन्न दश पूर्वी तथा अभिन्न एकादश पूर्वी आदि मुनि भी उस भव में असंयम को प्राप्त नहीं होते, ऐसा अनुमान होता है । समाधान ११ - समयसार के अभिप्रायानुसार अध्ययवसान मिथ्यात्वी के होते हैं, सम्यक्त्व के नहीं । समाधान १२ - समयसार आ. ख्या. २१७ में रागद्वेष मोहाद्या: में स्थित आदि शब्द से योग लेना चाहिए । सुख: दुखाद्या: पद में स्थित आदि शब्द से शरीर, बाह्यसंयोग तथा भोग के निमित्त भूत बाह्य पदार्थ गृहीत हो जाते हैं । समाधान १३ - समयसार में प्राय: कर्मशब्द से द्रव्यकर्म व भावकर्म दोनों लिए हैं । समाधान १४ - धवला का पूरा अनुवाद हमारा (पं. फूलचन्द्र जी का ) ही है, दूसरों का नाम तो औपचारिक है । (जो कि धवला में छपे हैं) समाधान १५ - जिस जिस जाति का मतिज्ञान हमें नहीं है उस उस जाति ( = भेद ) के मतिज्ञान के आवारक कर्मों का हमारे सर्वघाती स्पर्धकोदय है, ऐसा जानना । सारतः हमारे / आपके मतिज्ञानावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय भी (किसी भेद- विशेष की अपेक्षा) है । समाधान १६ - किसी कार्य विशेष को करने वाले निक्षेपाचार्य कहलाये होंगे। ऐसा नहीं समझना कि निक्षेपाचार्य नाम के कोई आचार्य थे । समाधान १७ - (धवल ७ पृ. ९३ से सम्बद्ध समाधान) जो सत्ता में स्थित है, ऐसे सर्वघाति स्पर्धकों का वास्तव में सर्वघाती रूप से ही अवस्थान है । और ऐसा अवस्थान है कि सत्ता में स्थित वे सर्वघाती स्पर्धक सर्वघाती रूप से रहते हुए भी उदीरणा को प्राप्त नहीं होते । यही उनका सद् अवस्था रूप उपशम है, न कि “उनका देशघाती रूप से सता में अवस्थान उपशम है । " 1 समाधान १८ - भोगभूमिज मनुष्यों में तीर्थंकर प्रकृति का सत्व नहीं है । समाधान १९ - (ध. ७/९३ से सम्बद्ध पुन: खुलासा अगले दिन) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy