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________________ ८८ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला व्यवहार में उपादेय बुद्धि नहीं है। समाधान २६ - “अबुद्धिपूर्वक व्यवहार का अवलंबन", ऐसा नहीं होता । परन्तु व्यवहार का अवलंबन तो बुद्धिपूर्वक ही होता है । अबुद्धिपूर्वक अवस्था में जो व्यवहार है वह तो होता है, इतना मात्र कहो । अबुद्धिपूर्वक राग १०वें गुणस्थान तक होता है । जून, ८४ में मिले समाधान (प्रवास - जबलपुर, म.प्र.) समाधान २७ - द्रव्य नपुंसक तिर्यंच तो पंचम गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि तिर्यंच सम्मूर्छनों के आगम में पंचम गुणस्थान बताया है। सम्मूर्च्छन मत्स्य आदि संयमासंयम को प्राप्त होते हैं और नारक सम्मूर्छिनो नपुंसकानि के अनुसार वे पंचम गुणस्थानवर्ती सम्मूर्छन तिर्यंच नियम से नपुंसक हैं, द्रव्य से भी। फिर द्रव्य नपुंसक मनुष्य पंचम गुणसथान तक क्यों नहीं जा सकता है, अवश्य जा सकता है। (देखें जयध. १२ प्रस्ता.पृ. २०) समाधान २८ - धवल १४/२३६ में लिखा है कि “एक-अन्तर्मुहूर्त में प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव नित्यनिगोद से निकलकर त्रस तथा इतर निगोदपने को प्राप्त करते हैं।" इस कथन से पं. प्यारे लाल जी कोटड़िया (उदयपुर) का यह निर्णय लेना ठीक नहीं है कि ६ मास ८ समय में नित्यनिगोद से ६०८ से भी अधिक जीव निकलते हैं। धवल १४/२३६ से तो यह ध्वनित होता है कि कुल पाँचों स्थावरों में से कल मिलाकर, एक अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात जीव त्रस पर्याय पाते हैं, न कि मात्र नित्यनिगोद से निकलकर । यह अटल सत्य है कि छह मास आठ समय में ६०८ जीव ही नित्यनिगोद से निकलते हैं तथा अन्य पर्याय धारण करते हैं तथा इतने ही जीव, इतने ही काल में मोक्ष चले जाते हैं । (मो.मा.प्र.पृ. ४६-४७ धर्मपुरा दिल्ली : गो.जी., जीव.प्रदी. १९७ सुदृष्टि तरंगिणी पृ. १०७, १११ जैन गजट दि. ४-१-६८ आदि) ध. १४/२३६ के विवक्षित वाक्यों का अर्थ तो ऐसा है कि नित्य व इतर निगोद तथा अन्य स्थावर चतुष्टय व प्रत्येक वनस्पति से अन्तर्मुहूर्त में कुल प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव निकलते हैं तथा “आयानुसारी व्यय" के नियमानुसार इतने ही जीव त्रसों में से अन्तर्मुहूर्त में “इतर निगोद, पृथ्वी जल अग्नि वायु, प्रत्येक वनस्पति” को चले जाते हैं। ऐसा अर्थ है । धवल १४/२३६ से ऐसा अर्थ थोड़े ही निकलता है कि नित्य निगोदों से अन्तर्मुहूर्त में प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव त्रसों में आते हैं । वहाँ "नित्य निगोद", ऐसा वाक्य भी नहीं पड़ा है। (दि. ३-६-८४ जबलपुर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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