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________________ ६८ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला उत्तर में लिखते हैं कि सर्वार्थ सिद्धि की कई हस्तलिखित प्रतियों में वह पाठ नहीं पाया जाता जहाँ यह लिखा है कि बद्धायुष्क क्षायिक सम्यक्त्वी मनुष्य उत्तम भोग भूमि में जाता है अत एव हमने दूसरे तथा तीसरे संस्करण में उस पाठ को निकाल दिया है तथा उसे टिप्पण में दि दिया है । हमने जयधवला जी में जो विशेषार्थ लिखा था (ज.ध.२/२६१) वह सर्वार्थसिद्धि के संपादन से पूर्व लिखा था अतः “सर्वार्थसिद्धि को छोड़कर " ऐसा हमने ज.ध. २ / २६१ में लिखा । (पत्र दि. १२.२.८७) (१२ से १५) गोम्मट सार कर्मकाण्ड की सभी (संस्कृत, कन्नड़, टोडरमल्लीय तथा मुख्तारी) टीकाओं में लिखा है कि क्षायिक सम्यक्त्वी सभी भोग भूमियों में उत्पन्न होता है । यथा- कर्मभूमि का वेदक सम्यक्त्वी (तिर्यंच) या मनुष्य या क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य जिसने पहले तिर्यंचायु का बंध किया है, ३ प्रकार के पात्रों को दान देकर या उनकी अनुमोदना करके, तीन भोगभूमियों में १, २, ३ पल्य की आयु धारण करके कपोत लेश्या के जघन्य अंश के साथ उत्पन्न हुआ। उस अपर्याप्त वेदक सम्यक्त्वी कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी या क्षायिक सम्यक्त्वी के देवगति सहित २८ का ही स्थान बंधता है । (पृ.८६६ ज्ञानपीठ प्रकाशन, तथा मूल में भी यही सब है। मुख्तारी टीका पृ.५४३) स्मरण रहे कि अपर्याप्त दशा में कापोत लेश्या का जघन्य अंश मात्र सम्यक्त्वी के ही होता है मनुष्य तिर्यंचों में (तिलोयपण्णत्ति ४/४२१-४२६ तथा कर्मकाण्ड पृ. ५२९ ज्ञानपीठ) तथा अपर्याप्त दशा में जो देवगति सहित २८ के स्थान का बन्ध करता है वह नियम से सम्यग्दृष्टि ही होता है। (द्रष्टव्य कर्मकाण्ड ज्ञानपीठ पृ. ९११, ८५४, ८३९, ८३८, १०८१, १०६२, ८५, १०२, ६१२ पंचसंग्रह पृ. २३२ (ज्ञानपीठ) आदि) तथा मिथ्यात्वी व सासादन का कथन पूर्व में हो चुका, अत: यहाँ मात्र अपर्याप्तावस्थागत सम्यक्त्व का ही कथन है, ऐसा जानना चाहिए । (१६) निम्न स्थलों पर बद्धायुष्क क्षायिक समकिती की उत्पत्ति भोगभूमि में ही बताई है, "उत्तम भोग भूमि" में नहीं : १. कर्मकाण्ड पृ. ८७७ ज्ञानपीठ २. कर्मकाण्ड पृ. ८८८ ज्ञानपीठ ३. जीवकाण्ड पृ. ७०८ पूज्य ब्र. रतनचन्द मुख्तार कृतटीका ४. जयधवल १३/१० सम्पादक - पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री सम्पादक - पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ५. धवल २/४८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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