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________________ ६७ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला पल्य आयु तक के विकल्प बनते हैं । (ति.प.५/२९० समय-जुद-पुव्व-कोडी..) मध्यम भोगभूमि में समयाधिक पल्य से लेकर २ पल्य तक की आयु होती है । उत्तम भोगभूमि में जघन्य आयु भी १ समय अधिक दोपल्य तथा उत्कृष्ट आयु उपल्य होती है। (ति.प.५/२९१-९२) पृ. १६८ भाग ३ महासभा प्रकाशन) अत: उक्त क्षायिक सम्यक्त्वी तिर्यंच की जो जघन्य आयु पल्य के असंख्यातवें भाग कही है वह निश्चित रूप से क्षायिक सम्यक्त्वी की जघन्य भोगभूमि में भी उत्पत्ति सिद्ध करती है। (१०) बड़तल्लायादगार, सहारनपुर (उ.प्र.) के मन्दिर जी में स्थित पूज्य ब्र. रतनचन्द मुख्तार की निजी जयधवल प्रतियों में पु.३ पृ.१०१ पु. १३ पृ.४ तथा २/२२५ आदि में “उत्तम भोगभूमि में बद्धायुष्क क्षायिक सम्यक्त्वी की उत्पत्ति होती है", इस विशेषार्थगत वाक्य में से “उत्तम" शब्द मुख्तार सा. द्वारा काट दिया गया है। (११) गुरुवर्य सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री (प्रवास काशी) स्वयं लिखते हैं कि सर्वार्थसिद्धि को छोड़ कर हमने दिगम्बर तथा श्वे. सम्प्रदाय में प्रचलित कार्मिक (कर्म सिद्धान्त) ग्रन्थ देखे, पर वहाँ हमें यह कहीं लिखा हुआ नहीं मिला कि क्षायिक सम्यक्त्वी अगर मरकर मनुष्य या तिर्यंच होता है तो उत्तम भोगभूमिया ही होता है । वहाँ तो केवल इतना ही लिखा मिलता है कि ऐसा जीव यदि मर कर तिर्यंच या मनुष्य हो तो असंख्यातवर्षायुष्क भोग भूमिया ही होता है । (जयधवल २/२६१, सन् १९४८) ठीक ३८ वर्ष बाद पूज्य गु. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री (प्रवास-हस्तिनापुर) मुझे एक पत्र के उत्तर में लिखते हैं - सर्वार्थसिद्धि में पृ.१७ (ज्ञानपीठ) के विवाद के स्थल को मूल से हटा कर टिप्पण में ले लिया है। यह विवादस्थ पाठ मूल में अन्य सर्वार्थसिद्धि-प्रतियों में नहीं है, अत: बहुभाग प्रमाण प्रतियों को प्रमाण मान कर मुद्रित प्रति (दूसरा तथा तीसरा संस्करण सर्वार्थसिद्धि ज्ञान-पीठ प्रकाशन) में से विवादस्थपाठ निकाल दिया है । इस प्रकार श्री जयधवल जी की बात (प.२ पृ.२६०) का समर्थन सर्वार्थसिद्धि से भी हो जाता है । अर्थात् सर्वार्थसिद्धि भी यह नहीं कहती कि बद्धायुष्क क्षायिक समकिती उत्तम भोगभूमि में ही उत्पन्न होता है । (पत्र दि.१/१०/८६) पूज्य पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री (प्रवास रुड़की उ.प्र.)पुन: मुझे एक प्रश्न के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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