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________________ ६६ भाति जेण तेणं मणुण भणिदा मुणीदेहिं ॥ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (तिलोयपण्णत्ति ४/५११-५१५) अर्थ - प्रतिश्रुती आदि नाभिराय (आदिनाथ के पिता) पर्यन्त ये १४ ही मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत महाकुल में राजकुमार थे । संयम तप तथा ज्ञान से युक्त पात्रों को दानादि देने में कुशल, स्वयोग्य अनुष्ठान से युक्त तथा मार्दव, आर्जव आदि गुणों से सम्पन्न वे सब पूर्व में मिथ्यात्व भावना से भोगभूमि की आयु बांध कर पश्चात् जिनेन्द्र के पादमूल में क्षायिकसम्यक्त्व ग्रहण करते हैं। अपने योग्य श्रुत को पढ़कर आयु के क्षीण हो जाने पर भोगभूमि में अवधिज्ञान सहित मनुष्य उत्पन्न होकर इन १४ में से कितने ही तो अवधिज्ञान से तथा कितने ही जातिस्मरण से भोग भूमिज मनुष्यों को जीवनोपाय बताते हैं इसलिए ये मुनीन्द्रों द्वारा “ मनु ” कहे गए हैं। ये सब कुलकर तीसरे काल (जघन्य भोग भूमि) में उत्पन्न हुए थे । (ति.प. ४/४२८ पलिदोवमट्ठमंसे...) इससे स्पष्ट है कि सभी क्षायिक सम्यक्त्वी मनु (कुलकर) जघन्य भोग भूमि में उत्पन्न हुए । (६) यही कथन तिलोयपण्णत्ति से त्रिलोकसार गा. ७९४ में नेमिचन्द्र सि. चक्रवर्ती ने किया है । (७) यही कथन तिलोयपणत्ति से आदिपुराण में पूज्य जिनसेनस्वामी ने भी किया है । ( आ. पु. पर्व ३ श्लोक २०७ से २१२ पृ.९२-९३ शास्त्राकार) (८) त्रिलोकसार की माधवचन्द्र त्रैविद्यदेवकृत टीका में भी इसी का समर्थन है कि क्षायिक समकित कुलकर तीसरे काल की जघन्य भोगभूमि में उत्पन्न हुए । (९) तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु एक्कवीसविह. केवडिय । जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो, उक्कस्सेण तिण्णि पालिदोवमाणि । ( जयधवला पु.२/२६०) अर्थ - तियांचगति में तिर्यंचों में २१ मोह प्रकृति के सत्व वालों का एक जीव की अपेक्षा कितना काल है ? जघन्य से पल्य का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्टत: ३ पल्य । विशेष - यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वी तिर्यंचों का जघन्य काल भोगभूमि में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण (जघन्यत:) बताया है । इसी कथन से यह हस्तामलकवत् स्पष्ट सिद्ध है कि क्षायिक समकित मनुष्य तिर्यंचों में जन्म लेता हुआ जघन्य भोग भूमि में भी जन्म लेता है । क्योंकि जघन्य भोगभूमि में ही १ समयाधिक पूर्व कोटि से प्रारम्भ करके पूरे एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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