________________
पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
६९ ६. धवल ४/२०९ सम्पादक - पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ७. लब्धिसार ११०-११ ८. पं. रतनचन्द्रमुख्तार व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृ. ३६६ ९. बृहद्रव्यसंग्रह ४९ टीका चरम पैरा
१०.श्रीपालसुत उड्डविराचित पंचसंग्रह/जीवसमास/श्लोक २२९ पृ.६७२ (१७) यदि यह कहा जाए कि सम्यग्दृष्टि तो जहाँ-२ जन्म लेता है वहाँ-२ के उत्कृष्ट में जन्म लेता है तथा उत्कृष्ट आयु ही पाता है । तो उत्तर यह है कि ऐसा भी नहीं है । यदि ऐसा ही माना जाए तो सभी सम्यक्त्वी अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग में ही जाते हैं, ऐसा मानना पड़ेगा। क्योंकि स्वर्गों में उत्कृष्ट स्वर्ग तो सोलहवाँ है, परन्तु ऐसा तो है नहीं । सम्यक्त्वी, क्षायिक सम्यक्त्वी आदि सौधर्म नामक पहले स्वर्ग में भी जाते हैं । (गो.जी.गा.६५७, धवल ३/६९,३/४७४, गो.क.प.८७१ (ज्ञानपीठ) आदि) तथा वहाँ भी उत्कृष्ट आय ही पाते हों, ऐसा भी नहीं है । वे सौधर्म स्वर्ग में जन्म लेते हुए न्यून आयु भी प्राप्त करते हैं । कहा भी है - सोहम्मे समुप्पज्जमाण सम्मादिट्ठीणं दिवड्ड पलिदोवमादो हेट्ठा जहण्णाउआभावादो । (जयधवल ६/२७५ महाधवल २/२४९) __ अर्थ - सौधर्म में उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्वी देवों की जघन्य आयु १-१/२ डेढ़ पल्य होती है, इससे कम नहीं। इस प्रकार निम्न स्वर्ग में, लगभग जघन्य आय पाकर भी सम्यक्त्वी उत्पन्न होते हुए पाए जाते हैं । तथैव इस आर्यखण्ड की भोगभूमि में चौदहवें कुलकर क्षायिक सम्यक्त्वी नाभिराय की आयु १ पूर्वकोटि(अर्थात् समयाधिक पूर्वकोटि) प्रमाण ही हुई थीं, यानी उन्हें जघन्य भोगभूमि की जघन्य आयु ही प्राप्त हुई थी। (ति.प.५/२९० भाग ३ पृ.१६८ महासभा प्रकाशन पूज्य १०५ परम विदुषी आर्यिकारत्न विशुद्धमति जी (तथा ति.प. भाग २ पृ.१४६ का नक्शा ) हाँ; जघन्य भोगभूमि में उत्पन्न होते हुए भी तथा जघन्य आयु पाते हुए भी वे कुलकर अर्थात् महाप्रभावी राजा समान थे (हरिवंश पुराण ७/१७६, ७/१७४) यही इनकी उत्कृष्टता थी। इसी तरह देवों में उत्पन्न होते हुए वे इन्द्र या सामातिक ही नहीं होते, परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष लोकपाल तथा अनीक भी होते हैं। मात्र सम्यग्दृष्टि जीव प्रकीर्णक आभियोग्य तथा किल्विषक नहीं होते, यही इनकी उत्कृष्टता है। (धवल ३/३३९) इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति सभी भोगभूमियों में, सभी आयुओं के साथ स्वीकार करनी चाहिए।
इन सब के बावजूद प्रभाचन्द्र आचार्य (११वीं शती) ने “कर्मभूमिजो मनुष्य एव
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org