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________________ ६४ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला अर्थ- पूर्व में मनुष्य तथा तिर्यंचों में आयु बांध कर, फिर सम्यक्त्व ग्रहण कर और दर्शनमोह का क्षय करके बांधी हुई आयु के वश से भोगभूमि की रचना वाले असंख्यात द्वीपों में उत्पन्न हुए, तथा भवशरीर ग्रहण के प्रथम समय में वर्तमान, ऐसे औदारिक मिश्रकाययोगी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवों के द्वारा अतीत काल में स्पर्श किया गया। क्षेत्र तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग पाया जाता है। (३) सयंपहपव्वतादो उवरिमभागो सव्वो चेव उववादपरिणद्सम्मादिट्ठीहि फुसिज्जदि... (धवल ४/२०९) अर्थ - स्वयंप्रभ पर्वत का उपरिम (अर्थात् पूर्व पूर्व वाला यानी भीतरी भाग पेज-२२२) सर्वभाग उपपाद परिणत असंयत समकिती तिर्यंच जीवों द्वारा स्पर्श को प्राप्त हुआ है। वह ३/८ राजू प्रमाण विष्कंभ (चौड़ा) और आयाम (लम्बा) वाला होता है । (वही पृष्ठ) (४) बद्धाअमणुसखइयसम्माइट्ठिसु तिरिक्खेसुष्पज्जमाणेसु असंखेज्जदीवेसु अच्छिय... (धवल स्पर्शनानुगम सूत्र १६८ की टीका) अर्थ- तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्यों द्वारा वहाँ उत्पन्न होकर असंख्यात द्वीपों में रहकर... यदि यहाँ यह प्रश्न किया जाए कि मानुषोत्तर पर्वत से परे मनुष्य नहीं है तथा मानुषोत्तर पर्वत के बाद असंख्यात द्वीपों में भोगभूमि है तथा वहाँ कल्पवृक्ष आदि व्यवस्था है, यह कहाँ लिखा है तो इसका उत्तर यह है कि 'प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः', यह सूत्र मात्र मनुष्यों की दृष्टि से है । यहाँ ऐसा नहीं कहा है कि 'प्राङ्मानुषोत्तरतिर्यश्च.' अत: मानुषोत्तर पर्वत से परे भी तिर्यंचों की सिद्धि तो हो ही जाती है। फिर वहाँ भोगभूमि है यह बात “परदो संयंपहोत्ति यजहण्ण भोगावणितिरिया, इस त्रिलोकसार (गाथा ३२३) के कथन से सिद्ध है। इस गद्यांश का अर्थ यह है कि मानुषोत्तर पर्वत से आगे स्वयंप्रभपर्वतपर्यन्त जघन्य भोगभूमिया तिर्यंच रहते हैं । और भोगभूमि में जलचर जीव नहीं होते और आदि के दो समुद्र तथा अन्तिम स्वयं भूरमण के सिवाय शेष सब मध्यवर्ती समुद्र भोगभूमि संबंधी है, अत: उनमें जलचर जीव नहीं पाए जाते । (त्रि.सा.३२०)। इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग में जो असंख्यात द्वीप हैं उनमें चूँकि जघन्य भोग-भूमि है अत: वहाँ असंख्यात तिर्यंच हैं । ये सभी गर्भज, भद्र, शुभ परिणामी हैं। युगलिया ही जन्म लेते हैं । पल्य की आयु होती है तथा कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग भोगते हैं। मरकर स्वर्ग ही जाते हैं और मिथ्यात्वी तिर्यंच मर कर भवनत्रिक बनते हैं । इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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