________________
६१
पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला वहाँ से क्रमश: देव व मनुष्य बनकर मोक्ष जाता है इस तरह क्षायिक सम्यक्त्वी मनुष्य अधिक से अधिक चौथे भव में अवश्य मोक्ष चला जाता है । जैसे नाभिराय (आदिनाथ के पिता) विदेह में मनुष्य बनकर वहाँ पुन: मनुष्य आयु बंध कर, फिर क्षायिक सम्यक्त्व होकर, फिर जघन्य भोगभूमि में कुलकर बनकर, फिर स्वर्ग गए। फिर मनुष्य बन कर मोक्ष गए। क्षायिक सम्यक्त्व का काल
सादि अनन्त हैं । संसारी जीव की अपेक्षा इस सम्यक्त्व का संसार में जघन्य काल अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्टत: “८ वर्ष व अन्तर्मुहूर्त” से कम दो पूर्वकोटि अधिक ३३ सागर है। (स.सि.पृ.२० ज्ञानपीठ)' इतना विशेष है कि वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का जघन्य काल क्षुद्रभव से कुछ कम है । (धवल ४/४०७) जो जीव अनेक बार मिथ्यात्व से सम्यक्त्व तथा सम्यक्त्व से मिथ्यात्व को प्राप्त हुए हैं उसी के यह जघन्य काल सम्भव है। सामान्य सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ४ पूर्वकोटि अधिक ६६ सागर है । (धवल ७ पृ.१७८ स.सि.पृ.२० ज्ञानपीठ,टिप्पण) दूसरे मत के अनुसार सामान्य सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक पूर्व कोटि से अधिक ९९ सागर है। (धवल १३/१०९-१०) वेदकसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ सागर है । उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
(स.सि.पृ.२० ज्ञानपीठ) बद्धायुष्क क्षायिकसमकिती का जन्म -
यों तो सम्यक्त्वी मनुष्य एक मात्र देव गति में ही जन्म लेते हैं । पूर्व में यदि नरकायु का बंध कर लिया है तो मात्र प्रथम नरक में ही जाएँगे तथा तिर्यंच या मनुष्यायु का बंध किया हो तो मात्र भोगभूमि के ही तिर्यंच मनुष्य होंगे। कोई भी सम्यक्त्वी भवनत्रिक देवों, देवियों, स्त्रियों या आभियोग्य प्रकीर्णक या किल्विषकों, विकलत्रय, स्थावर, प्रथम नरक बिना शेष ६ नरकों में, १२ मिथ्यावादों में उत्पन्न नहीं होते ।क्षायिक सम्यक्त्वी सभी भोग भूमियों में जन्म लेता है। पहिचान__सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है, अत: अवधिज्ञानी मुनि इन ७ प्रकृतियों की द्रव्यकर्म सत्ता के अभाव को देखकर अनुमान ज्ञान द्वारा क्षायिकसम्यक्त्व को जान लेते हैं। कार्मणवर्गणा सूक्ष्म है, अत: वह पाँच इन्द्रियों का विषय नहीं है और न ही बाह्य में क्षायिक सम्यक्त्व का ऐसा कोइ चिह्न है जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत हो, अत: क्षायिक सम्यक्त्व की पहिचान मतिज्ञान द्वारा नहीं हो सकती । (मुख्तार ग्रन्थ पृ.३६१)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org