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________________ 2 . पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला स्वामित्व ढाई द्वीप में स्थित १५ कर्मभूमियों में, जहाँ कि जिस काल में जिन, केवली और तीर्थंकर (यानी श्रुतकेवली, केवली) होते हैं वहाँ उस काल में मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा प्रारम्भ करता है। शेष द्वीपों (ढाई द्वीप से बाहर के) में स्थित जीवों के दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारंभ नहीं होता । केवल मनुष्य पर्याय ही दर्शनमोह की क्षपणा करते हैं, तिर्यंच नहीं । (धवल ६/२४३-४५) कहा भी है - कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ, असंयत सम्यग्दृष्टि आदि ४ गुणस्थानों में स्थित, मनुष्य पर्याय ही नियम से दर्शनमोह की क्षपणा प्रारम्भ करता है, परन्तु निष्ठापन अर्थात् समापन या पूर्णता तो किसी भी गति में जाकर कर सकता है। (जयधवल १३/प्रस्ता.पृ.९, गोजी.६४७) विद्या आदि के वश में समुद्रों में आए हुए जीवों के लवण तथा कालोदधि नामक दो समुद्रों में भी दर्शनमोह का क्षपण सम्भव है। सामान्यत: तो जीव केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही दर्शनमोह की क्षपणा प्रारम्भ करते हैं, परन्त विशेष यह है कि जो उसी भव में तीर्थंकर होने वाले हैं वे तीर्थकर केवली या श्रुतकेवली की अनुपस्थिति में भी स्वयं जिन अर्थात् श्रुतकेवली बन कर स्वयं स्वत: दर्शनमोह की क्षपणा करते हैं। (i) दूसरी तथा तीसरी पृथ्वी से निकले हुए तीर्थंकर सत्वी क्षयोपशम सम्यक्त्वी जीव (जैसे कृष्णादि) जब इस पृथ्वी पर मनुष्य बन कर आते हैं तब वे स्वयं दर्शनमोह की क्षपणा करते हैं, यह अभिप्राय है। (ii) स्वर्ग से भी जो क्षयोपशम सम्यक्त्वी मनुष्य तीर्थंकर सत्वी आता है वह भी स्वयं दर्शनमोह की क्षपणा (स्वयं ही श्रुतकेवली बनने के पश्चात्) करेगा। (जैन गजट दि १६.४.७० पूज्य ब्र.रतनचन्द मुख्तार सहारनपुर) क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर फिर कभी जीव मिथ्यात्व में नहीं जाता। इतना विशेष है कि संयमी या श्रेणि पर चढ़ा क्षायिक सम्यक्त्वी मुनि गिरकर पुन: असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक भी पहुंच सकता है। (जयधवल १०/१२१) क्षायिक समकिती के भव क्षायिक सम्यक्त्व होने पर मनुष्य उसी भव से मोक्ष जा सकता है, जैसे वर्धनकुमार । तथा मनुष्य भव से देव या नारकी होकर तीसरे भव से भी मोक्ष जा सकता है, जैसे श्रेणिक । यदि क्षायिक सम्यक्त्व होने के पूर्व मनुष्यायु या तिर्यंचायु का बंध कर लिया हो तो किसी भी भोगभूमि (उत्तम मध्यम या जघन्य) में मनुष्य या तिर्यंच बनकर, फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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