________________
पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
क्षायिक समकित
सम्यग्दर्शन
तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं (त.सू.१/२) तथा इसका सूक्ष्म रस यह है कि आत्मश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। दौलत राम जी छहढाला में ठीक ही कहते हैं कि पर द्रव्य से भिन्न, अपने में रुचि सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के पर्यायवाचक नाम श्रद्धा, रुचि, स्पर्श, प्रत्यय, प्रतीति : ये हैं । (श्रद्धारुचिस्पर्शप्रत्ययाश्चेति पर्यायाः) म.पुराण ९/१२३) सम्यग्दर्शन तीन प्रकार के होते हैं - उपशम, वेदक तथा क्षायिक । चार अनन्तानुबंधी सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति तथा मिथ्यात्व प्रकृति: इन ७ के उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है तथा क्षयोपशम से क्षयोपशम सम्यक्त्व यानी वेदक सम्यक्त्व होता है तथा इन्हीं सातों प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । क्षायिक सम्यक्त्व
खीणे दंसण मोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खइयसम्मतं णिच्चं कम्पखवणहेदु । अर्थ - दर्शन मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मलश्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । (पंचसंग्रह प्राकृत १ / १६०) यह सम्यक्त्व (क्षायिक) नित्य (अविनाशी) होता है तथा आगे कर्मों के क्षय का कारण होता है। श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्कों से, इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले रूपों से तथा बीभत्स तथा जुगुप्सित पदार्थों से भी यह चलायमान नहीं होता । क्षायिक सम्यक्त्वी जीव असम्भव या अनहोनी घटनाएँ देख कर भी विस्मय या क्षोभ को प्राप्त नहीं होता । अतः यह मेरु की भांति निष्प्रकम्प, निर्मल व अक्षय अनन्त होता है । (ल. सार १४६ )
वेदकसम्यक्त्वी ही क्षायिक सम्यक्त्वी को प्राप्त कर सकता है, उपशमसम्यक्त्वी या मिथ्यात्वी नहीं । (रा.वा. २ ।१ ।८ ।१०० ज्ञानपीठ)
Jain Education International
५९
व्याख्यान - ३
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org