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________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला ५७ यदि पूर्व में दो बार आयु बंध करे (पं. मोतीचन्द की मान्यतानुसार) तो इसके पूर्व भव के तो दो बंधक काल तथा जलचर भव का एक आयुबंधक काल: इस तरह तीन आयुबन्धक काल हो जाएंगे। परन्तु धवलाकार तो स्पष्टत: प्रकृत में दो बधककाल प्रमाण ही आयु का उत्कृष्ट द्रव्य बता रहे हैं (दो बंधगद्धामेत्तसमयपबद्धेसु सोहिदेसु आउअस्स उक्कस्स दव्वं होदि. ध. १०/२५४) अत: कदलीघात भव से पूर्व भव में दो बार आयुबंध मानना मिथ्या है। किंच : यदि उपर्युक्त जीव पूर्व भव में दो बार आयु बन्ध करता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसने दो अपकर्षों द्वारा आयु बंध किया : क्योंकि एक ही अपकर्ष में तो हीनाधिक आयुबंध हो ही नहीं सकता । (देखो - आयुबन्ध के विशिष्ट नियम नं.११ तथा जैनगजट दि. ३.१०.६३ पृष्ठ IX सिद्धान्त शिरोमणि ब्र. रतनचन्द मुख्तार) ___ अत: दो अपकर्षों द्वारा उसने यदि पूर्व भव में दो बार आयुबन्ध किया है तो ऐसी स्थिति में उसके पूर्व भव में आयुबंधक काल उत्कृष्ट नहीं प्राप्त हो सकेगा क्योंकि दो अपकर्षों द्वारा आयुबंध करने वाले के दोनों बंधक कालों के योग से भी मात्र एक तथा प्रथम अपकर्ष द्वारा आयुबन्ध करने वाले का आयुबन्धकाल संख्यात गुणा पाया जाता है । (देखें धवल १० पृ. २२८ से २३३ का अल्पबहुत्व का सार) अत: दो अपकर्षों द्वारा पूर्व भव में आयु बंधाने पर “दीहाए आउअबंधगद्धाए" अर्थात् उत्कृष्ट बंधक काल द्वारा आयुबंध करने वाले के यह विशेषण निरर्थक हो जाएगा। अत: यह त्रैकालिक सत्य है कि प्रकृत जीव मात्र एक बार तथा प्रथम ही अपकर्ष से आयुबंध करके जलचरों में उत्पन्न हुआ तथा वहाँ फिर अकालमरण (कदलीघात) को भी प्राप्त हुआ है। इस कथन से यह बात अत्यन्त मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि कदलीघात के पूर्व वाले भव में दो बार आयु बंध होता है तथा धवला से बड़ा कोई शास्त्र संसार में हो नहीं सकता, अत: धवला का कथन ही मान्य है। इस प्रकार यह निर्विरोध सिद्ध है कि अकालमरण से पूर्व भव में दो बार आयु बन्ध होवे, ऐसा नियम नहीं है।' तथा जितने वर्ष आयु जीकर अकालमरण होता है उतनी ही (जीवित प्रमाण ही) आयु का पूर्व भव में बंध होता है, यह भी मिथ्या है। अकालमरण में तो मात्र इतनी बात है कि पूर्व में १०० वर्ष आयु बांधने वाले के, तथा वर्तमान भव में ८० वर्ष की आयु में ही विषभक्षण आदि से अकालमरण(कदलीघात) होने पर, शेष २० वर्षों की आयु की निषेक-लड़ी तत्काल युगपत् (= अन्तर्मुहूर्त में ही) खिर जाती है। यही सम्पूर्ण निषेकों का क्षणभर में अयथाकाल निझीर्ण हो जाना ही अकालमरण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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