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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला होता है । उत्तर भव में उसके दोनों बंध (८० वर्ष व ४० वर्ष के) सत्ता में होकर
द्वितीय बंध का उदय होता है । (पृ.३२२) (ज) (८० वर्ष की उम्र बांध कर ४० वर्ष में मरने का अर्थ यह हुआ कि उसने) :
८० वर्ष तथा ४० वर्ष दोनों आयु बंध भिन्न-२ काल में पूर्व भव में किए हैं। तथा ८० वर्ष की आयुस्थिति का अपकर्षण होकर ४० वर्ष रह गई। ८० वर्ष की आय का अपकर्षण हो जाने से वह उत्तर भव में उदय को प्राप्त नहीं होता। अपकर्षण के बाद ४० वर्ष की आयु स्थिति का बंध होता है । इस उत्तर भव में ४० वर्ष की स्थितिवाला आयुकर्म उदय को प्राप्त होता है तथा ४० वर्ष की
मर्यादा पूर्ण हो तो ही मरण होता है, पहले नहीं (पृ.३२४, ३८२) (ट) पूर्व भव में पूर्व बद्ध आयु का अपकर्षण होकर द्वितीय आयुकर्म की स्थिति के
अनुसार उत्तर भव में जन्म होकर आयु की स्थितिकाल समाप्त होकर जो विषादि से मरण होता है उसे अकाल मरण कहते हैं । (३२६-२७) (ठ) प्रथम आयु के स्थिति बंध के अनुसार आयु कर्म का क्षय होने का काल ही
मरणकाल अर्थात् स्वकालमरण है । पूर्वबद्ध आयु की स्थिति का अपकर्षण होकर पूर्वबद्ध आयु के स्थिति व अनुभाग से न्यून स्थिति-अनुभाग वाला आयु कर्म दूसरी बार बंधा । इस द्वितीय आयुबंध के अनुसार जो जीव का मरण होता है उसे अकालमरण कहते हैं । (पृ.३४०) (ड) जिस मरण में आयु के अपकर्षण तथा उदीरणा होते हैं वह मरण अकालमरण
है । जिस मरण में ये दोनों नहीं होते वह कालमरण है । (पृ.३४०) इस प्रकार (क) से (ड) तक इन १३ बिन्दुओं द्वारा पं. मोतीचन्द जी कोठारी की मान्यता को मैंने स्पष्ट किया है। अब इन (क) से (ड) तक के बिन्दुओं पर समीक्षा की जाती है। श्रद्धेय पण्डित जी करणानुयोग के इस सूक्ष्म गहन सागर में प्रविष्ट तो हो गए, पर पूर्णत: उलझ गए हैं। समीक्षा
बिन्दु (क) में जो पण्डित जी ने लिखा है उससे अत्यन्त स्पष्ट है कि पण्डित जी (मोतीचन्द जी कोठारी) अपकर्षण के लिए बंध को आवश्यक मानते हैं । परन्तु अपकर्षण के लिए बंध की आवश्यकता नहीं होती । बंधुक्कड्डणाकरणं सगसग बंधोत्ति (गो.क ४४४) इस नियम के अनुसार बंध और उत्कर्षणा करण जब तक बंध होता है तब तक होते हैं, अन्यत्र नहीं । परन्तु अपकर्षण या अपवर्तन तो बंध के बिना भी होता है । इसीलिए भगवान् सयोग केवली के ८५ प्रकृतियों का अपकर्षण होता रहता है, जबकि बंध तो
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