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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला ___अर्थ - उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य भोगभूमिज तिर्यंचों की आयु क्रमश ३, २, १ पल्य है । अविनश्वर भोग-भूमियों में जघन्य व उत्कृष्ट आयु उतनी ही है। (२) महापुराण ९/९१ में कहा है कि सर्वे चिरायुष: सर्वे समसुखोदया: सर्वेऽपि
समसंभोगा: अर्थात् सभी भोग भूमिज अपनी-२ भोगभूमि में सब समान सुखी, सब समान भोग भोगनेवाले तथा सब दीर्घ जीवी होते हैं। ऐसी स्थिति में शाश्वत भोगभूमि में देवकुरु इत्यादि में जघन्य व उत्कृष्ट आयु मानने पर कोई अल्पजीवी तथा कोई दीर्घजीवी सिद्ध हो जाएँगे जो सर्वे दीर्घजीविन: इत्यादि विशेषताओं के विरुद्ध होगा। (३) सर्वार्थसिद्धि ३/२९-३० में देवकुरु उत्तरकुरु, हरिवर्ष रम्यक तथा हैरण्यवत
हेमवत क्षेत्रों की आयु ३, २,१ पल्य तो कहीं पर जघन्य व उत्कृष्ट का भेद नहीं किया। जिससे जाना जाता है कि भोगभूमि (शाश्वत) में जघन्य व उत्कृष्ट आयुरूप भेद न होकर निर्विकल्प ३, २, १ पल्य प्रमाण आयु उत्तम मध्यम व जघन्य भोगभूमि में होती है। यथा- त्रिपल्योपमस्थितियो देवकुरवका: । द्विपल्योपमस्थितयो हरिवर्षका: । एकपल्योपमस्थितयो हैमवत्का : (स.सि. ३/२९) इतना ही नहीं, इसी सूत्र (३/२९) के पूर्वसूत्र २७ तथा पश्चात् वर्ती सूत्र ३९ में तो स्पष्टत: अनुभव आयु:प्रमाणादिकृतो वृद्धिह्रासौ मनुष्याणां भवत: (स.सि.३/२७) । तथा उत्कर्षेण पूर्वकोटि स्थितिका: जघन्येन अन्तर्मुहूर्तायुषः (स.सि. ३/३१) इन जघन्य व उत्कृष्ट आयु या आयुर्विकल्प प्रतिपादक टीकाओं से स्पष्ट है कि टीकाकार पूज्यपाद ने स.सि. ३/२९ की टीका लिखते समय स्पष्टत: शाश्वत भोग-भूमियों में जघन्य व उत्कृष्ट भेद रहित मात्र निर्विकल्प
एक ही आयु मानी है। (४) राजवार्तिककार ने भी ३/२९-३० में स.सि. के समतुल्य ही कथन किया है। (५) सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक ३/२७ की टीकाओं में स्पष्टत: भरतैरावत के
प्रथमकाल के आदि समय में ही मनुष्यों को उत्तरकुरु तुल्य बताया तथैव द्वितीयकाल (सुखमा) के आदि में ही मनुष्यों को हरिवर्ष तुल्य बताया। तथैव तृतीयकाल (सुखम दुःखमा) के आदि में ही होने वाले मनुष्यों को हैमवतक्षेत्र के मनुष्यों के समान बताया। जिससे स्पष्ट है कि शाश्वती भोगभूमि में तो आयु, भोग आदि आदि से अन्त तक एक से हैं (आयु घटती बढ़ती नहीं)। यही सब कथन ति.प. ४/१७०३, १७४४, २१४५ में है । यथा
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