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________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला दिनरात तथा ६ मास है । इन सब की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिए । (ति.प.५/२८१-२९०) पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में मत्स्यादि की १ करोड़ पूर्व, गोह, नेवला, सरीसृपादि की ९ पूर्वांग, सर्प की ४२ हजार वर्ष, कर्म भूमिज भेरुण्ड आदि पक्षी की ७२ हजार वर्ष, असंज्ञी पंचेन्द्रिय की १ करोड़ पूर्व उत्कृष्ट आयु होती है। इन सबकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त होती है। भोगभूमि में तिर्यंच व मनुष्य की १ पल्य, दो पल्य तथा ३ पल्य क्रमश: जघन्य मध्यम व उत्तम भोगभूमि में आयु होती है । यह उत्कृष्ट आयु है । जघन्य आयु जघन्य भोगभूमि में १समयाधिक पूर्वकोटी, मध्यम भोगभूमि में १ पल्य तथा उत्तम भोगभूमि में दो पल्य जाननी चाहिए । (ति.प. भाग २ पृ. १२६ आ. विशुद्धमति जी) एक समय अधिक पूर्व कोटी आदि आयु विकल्प भरत ऐरावत क्षेत्र में प्राप्त होते हैं। कहा भी है कि उत्सर्पिणी काल का आश्रय लेकर भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों में पूर्वकोटि के ऊपर एक समय अधिक आदि के क्रम से तीन पल्य प्रमाण काल तक निरन्तर आयु वृद्धि देखी जाती है। (धवल १४/३५९) भरत ऐरावत क्षेत्र में भोगभूमि रचना जब बनती है तभी यहाँ वृद्धि तथा ह्रास होने से (त. सू.३/२७) आयु के जघन्य तथा उत्कृष्ट विकल्प बनते हैं। कहा भी है - इन छह कालों के आदि व अन्त में जीवों की आयु का प्रमाण क्रम से तीन पल्य और दो पल्य (यानी प्रथम काल के आदि में जीवों की आय का प्रमाण तीन पल्य तथा अन्त में दो पल्य होती है। दूसरे काल के प्रारम्भ में दो पल्य तथा अन्य में एक पल्य आयु होती है। तीसरे काल के आदि में आयु १ पल्य तथा अन्त में पूर्व कोटि प्रमाण होती है । चौथे काल में आदि में पूर्व कोटि और अन्त में १२० वर्ष प्रमाण है । पंचमकाल के आदि में १२० वर्ष और अन्त में २० वर्ष प्रमाण है । छठे काल के आदि में २० वर्ष और अन्त में १५ वर्ष आयु होती है ।(त्रिलोकसार गा.७८२) तथा ति.प. ५/२९०-२९२) परन्तु यह जघन्य उत्कृष्ट विकल्प भरत-ऐरावत की अपेक्षा ही है - देखो त्रि.सा. गाथा.७७९ की उत्थानिका में स्पष्ट कहा है कि अब भरत ऐरावत क्षेत्र में काल का कथन करते हैं। ___ इस प्रकार भोगभूमि में भरत ऐरावत को छोड़कर अन्य जो भोगभूमियाँ हैं - हेमवत, 'हरिवर्ष देवकुरु हैरण्यवत् रम्यक् तथा उत्तरकुरु,' इन शाश्वत भोगभूमियों में तो आयु स्थिर रूप से ही रहती है। कहा भी है - वरमज्झिमवर भोगज तिरियाणं तियदुगेग्गपल्लाउ अवरे वरम्मि तेत्तियमविण्णसर-भोग भूवाणं ।। (ति.प. ५/२८९ पृ.१६७ महासभा प्रकाशन) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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