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________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (४) अभव्यों से अनन्तगुणा = सिद्धों के अनन्तवें भाग । पृ. २७६, ९१, २१५ जयधवल पु. १६ :(१) विकल श्रुतज्ञान से भी श्रेणि चढ़ना सम्भव है । पृ. २६ (२) अन्तरंग तथा बहिरंग कारण से जीव सम्यक्त्व पाता है । पृ. १९० (३) संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तादि लक्षण वाली प्रायोग्य लब्धि है । पृ. १८८ (४) उदीरणा से सर्वत्र उदय असंख्यात गुणा ही होता है । पृ.७५-७६ बारहवें गुणस्थान में प्रथम व द्वितीय शुक्ल ध्यान होते हैं । पृ. १२४ (धवल १३/८१) (६) कैवली के असाता का उदय अकिंचित्कर होता है । पृ. १३४ स्थितिकाण्डक घात, अनुभाग काण्डक घात, गुणश्रेणि : ये सयोग केवली के चरमसमय तक होते हैं । पृ. १७१ (८) पूज्य भगवद्वीरसेन स्वामी शब्दब्रह्म, गणधर तथा सर्वज्ञ (सर्वज्ञवत्) थे । पृ. १४६ इस प्रकार धवलत्रय का एक दृष्टि से सार-संक्षेप में पूरा हुआ। इस प्रकार गुरुजी का व्यक्ति-कृतित्व,गुरुजी के समाधान तथा धवल,महाधवल,जयधवल का सार संक्षेप (धवलत्रय के अमृतकण) पूरा हुआ। दि.१०-४-१९९३ ई,वैशाख कृ.४ को उक्त लेख संपूर्ण हुए । (पण्डित जी की जन्म तिथि) विनीत जवाहरलाल मोतीलाल जैन, भीण्डर एवं श्रीमती कैलाश जैन,M.A., भीण्डर 3 ७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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