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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला संयमासंयम के माहात्म्य से निरन्तर गुणश्रेणि निर्जरा होती है । पृ. १२४, १२९ प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम तथा षष्ठ गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभव से भी कम है, यानी १/२३/.०३३३/.३३३ सैकण्ड से कुछ कम है । पृष्ठ १३४ (और भी देखें कपा.सु.प.६७५, ल.सा.गा. १७८, धवल ६/२७४ धवल ४/४०७ तथा
जैनगजट २९-८-६६ ईस्वी मुख्तारी लेख आदि) (६) म्लेच्छों में धर्मकर्म की प्रवृत्ति असंभव है । पृ. १४० (७) म्लेच्छों में भी, परिवर्तन विशेष की स्थिति में, धर्म-संयम संभव है । पृ. ०-१८१ (८) दर्शन, चारित्र मोह की उपशामना, चारित्रमोह क्षपणा में ही अन्तरकरण होता है,
अन्यत्र नहीं । २०० (द्रष्टव्य पृ. २०) (९) तीर्थंकर सत्वी जीव भी उपशम श्रेणि चढ़ते हैं। जयधवल पु. १४:(१) उदयावली में प्रविष्ट स्थिति की उपशामना नहीं होती । पृ. १६ (२) सम्यक्त्वी के बंध की अपेक्षा सत्व सर्वकाल संख्यातगुणा होता है । पृ. १७५,
१४३ । (३) संख्यात हजार कोड़ाकोड़ी आवलियों का एक उच्छ्वास होता है । पृ. १३० (४) श्रेणि से उतरते जीव के प्रतिसमय अनन्तगुणीहीन-अनंतगुणीहीन विशुद्धि होती
है । पृ. ५२, ९४
श्रेणि चढ़ने वाले के काल से उतरने वाले के काल छोटे होते हैं । पृ.७५-७६ (६) सर्वत्र अनिवृत्तिकरण परिणाम समान नहीं होते । दर्शनमोहोपशामक के करणत्रय
से चारित्रमोहोपशामक के करणत्रय अनंतगुणे विशुद्ध हैं । पृ. १४९, १५० (७) ध्यान की भूमिका में होता तो श्रुतज्ञान ही है । पृ. १५९ । (८) एक ही समय में उत्कर्षण तथा अपकर्षण दोनों सम्भव हैं । पृ. ३१९ जयधवल पु. १५:(१) एकेन्द्रिय से सीधी मनुष्य पर्याय व मोक्ष सम्भव है । पृ. ११७ (द्रष्टव्य - ति.प.
५/३१४ पृ. १७३ महासभा प्रकाशन आ. विशुद्धमति जी) (२) जघन्य अनुभाग वाले परमाणु में भी अनन्त अवि. प्रतिच्छेद होते हैं । पृ. १६३
एक स्थितिविशेष (यानी एक निषेक) में उत्कृष्टत: असंख्यातभवसंचित कर्म होते हैं । पृ. १६८, २१२, १९७, १९२ आदि ।
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