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________________ ३२ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला आयु कर्म : एक अनुशीलन आयु : प्रवचनसार में लिखा है कि अवधारणनिमित्तम् आयुः प्राणः, भवधारण के निमित्तभूत आयु प्राण होता है । (प्र.सा. टीका त.प्र. १४६) जीवन के परिणाम का नाम आयु है । अथवा जिसके सद्भाव में आत्मा का जीवनपना होता है तथा जिसके अभाव में मृत्यु कही जाती है उस भवधारण को ही आयु कहते हैं। (राजवार्तिक ८/१०/२) व्याख्यान - २ आयु कर्म का लक्षण : भवधारण कराना आयु कर्म की प्रकृति है आयुषो भवधारणम् (सर्वार्थसिद्धि ८/३) अथवा जिसके द्वारा नारक आदि भव को जाता है वह आयु कर्म है (अनेन नारकादि भवम् एतीत्यायुः) जो भवधारण के प्रति जाता है वह आयु कर्म है ( धवल १३ / ५) सारत: आयुकर्म विवक्षित गति में जीव का अवस्थान (टिकाव) करता है । जैसे काष्ठ का खोड़ा उसके छिद्र में जिसका पाँव आ जावे उसको वहीं रोक देता है - स्थित कर देता है उसी तरह आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदयरूप होता है उस ही गति में जीव की स्थिति करता है (गो.क. जीवतत्त्व. २०) Jain Education International आयु के भेद व बन्ध-उदय : 1 1 आयु के चार भेद होते हैं - नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा देवायु । चारों आयु का योग्य गतियों में बंध भी होता है तथा सत्व भी । परन्तु उदय तो अपनी- २ गति में ही होता है । यथा - नरकगति में ही नरकायु का उदय होता है, पर नरकायु का बन्ध तो तिर्यंच व मनुष्यगति में भी हो जाता है । तिर्यंच गति में ही तिर्यंचायु का उदय होता है, पर तिर्यंचायु का बंध तो नरक तिर्यंच मनुष्य व देव किसी भी गति में हो सकता है । मनुष्यगति में ही मनुष्यायु का उदय होता है, पर मनुष्यायु का बंध तो चारों गतियों में हो सकता है । इसी तरह देवगति में ही देवायु का उदय होता है । परन्तु देवायु का बंध तो मात्र तिर्यंच व मनुष्य ही कर सकते हैं। इस प्रकार उदय व बंध के स्वामियों का विवेचन किया गया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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