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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला
आयु कर्म : एक अनुशीलन
आयु :
प्रवचनसार में लिखा है कि अवधारणनिमित्तम् आयुः प्राणः, भवधारण के निमित्तभूत आयु प्राण होता है । (प्र.सा. टीका त.प्र. १४६) जीवन के परिणाम का नाम आयु है । अथवा जिसके सद्भाव में आत्मा का जीवनपना होता है तथा जिसके अभाव में मृत्यु कही जाती है उस भवधारण को ही आयु कहते हैं। (राजवार्तिक ८/१०/२)
व्याख्यान - २
आयु कर्म का लक्षण :
भवधारण कराना आयु कर्म की प्रकृति है आयुषो भवधारणम् (सर्वार्थसिद्धि ८/३) अथवा जिसके द्वारा नारक आदि भव को जाता है वह आयु कर्म है (अनेन नारकादि भवम् एतीत्यायुः) जो भवधारण के प्रति जाता है वह आयु कर्म है ( धवल १३ / ५) सारत: आयुकर्म विवक्षित गति में जीव का अवस्थान (टिकाव) करता है । जैसे काष्ठ का खोड़ा उसके छिद्र में जिसका पाँव आ जावे उसको वहीं रोक देता है - स्थित कर देता है उसी तरह आयुकर्म जिस गति सम्बन्धी उदयरूप होता है उस ही गति में जीव की स्थिति करता है (गो.क. जीवतत्त्व. २०)
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आयु के भेद व बन्ध-उदय :
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आयु के चार भेद होते हैं - नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु तथा देवायु । चारों आयु का योग्य गतियों में बंध भी होता है तथा सत्व भी । परन्तु उदय तो अपनी- २ गति में ही होता है । यथा - नरकगति में ही नरकायु का उदय होता है, पर नरकायु का बन्ध तो तिर्यंच व मनुष्यगति में भी हो जाता है । तिर्यंच गति में ही तिर्यंचायु का उदय होता है, पर तिर्यंचायु का बंध तो नरक तिर्यंच मनुष्य व देव किसी भी गति में हो सकता है । मनुष्यगति में ही मनुष्यायु का उदय होता है, पर मनुष्यायु का बंध तो चारों गतियों में हो सकता है । इसी तरह देवगति में ही देवायु का उदय होता है । परन्तु देवायु का बंध तो मात्र तिर्यंच व मनुष्य ही कर सकते हैं। इस प्रकार उदय व बंध के स्वामियों का विवेचन किया गया ।
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