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________________ २४ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला महाबन्ध पु.५:(१) सातावेदनीय शुभ कर्म है, अत: इसके उत्कृष्ट स्थिति बन्ध में कम अनुभागबंध तथा इस क्रम से चलते-चलते जघन्य स्थिति बंध के समय उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। एक पर्याय में जीव अधिक से अधिक दो बार उपशम श्रेणि चढ़ सकता है । साधारणतया यह नियम है कि शुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के समय अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट नहीं होता, परन्तु जघन्य स्थिति बन्ध के समय उत्कृष्ट अनुभागबंध होता है । जैसे सातावेदनीय । अशुभ प्रकृतियों का जहाँ-जहाँ उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है वहाँ-वहाँ उत्कृष्टि अनुभाग बन्ध भी होता है तथा जघन्य स्थितिबंध के समय जघन्य अनुभाग बन्ध ही होता है जैसे ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय का दसवें गुणस्थान के चरम में होने वाले इनके बंध । महाधवल पु.६: (१) एक हाथ से पानी से भरी बाल्टी उठाने पर उस हाथ के आत्मप्रदेशों में अधिक खिंचाव (= ज्यादा योग) होता है । उसी समय शेष शरीर-अवयवों में उतना खिंचाव नहीं होने से शेष आत्म-प्रदेशों में हीन योग जानना चाहिए । इस प्रकार “योग गुण आत्मा में किसी प्रदेश में जघन्य होता है तो किसी में उत्कृष्ट ।” (२) सब प्रकृतियों का बंध औदयिक भाव से होता है। (३) साधारणतया यह नियम है कि जो जिस जाति में उत्पन्न होता है, यदि वह सम्यक्त्वी नहीं है, तो उसके मरण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व से उसी जाति संबंधी प्रकृतियों का बंध होने लगता है । पृ. १४८ महाधवल पु.७:(१) भोग भूमि में नपुंसक वेद आदि का बंध अपर्याप्तावस्था में होता है। (२) तीर्थंकर सत्वी मिथ्यात्वी मनुष्य दूसरे, तीसरे नरकों में ही जाते हैं, प्रथम में नहीं। पृ. १६८, १८२ आदि (और भी देखें महाध. ५/२८७ तथा धवल ८/१०४) (३) नरक, मनुष्य तथा देव गति में यदि कोई जीव उत्पन्न न हो तो कम से कम १ समय तक और अधिक से अधिक २४ मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता। (४) उपशम सम्यक्त्वके काल में संयमासंयम तथा संयम की दो बार प्राप्ति तथा च्युति सम्भव है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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