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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला (५) एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीय भी बांधते हैं, जब विशुद्ध हों। जयधवल पु.१:(१) अपर्याप्तावस्था में भी उपयोग रूप ज्ञान-दर्शन हो सकता है । पृ. ५१ (२) वर्तमान आगम प्रमाण है । पृ. ६४ पृ. ८२ (३) स्यात्-शब्द का अर्थ “कहीं पर", भी होता है । पृ. ३३८, २५३, ३४५ (४) चरमशरीरी का अकाल मरण नहीं होता । पृ. ३६१, ३२९ (५) जीव कथंचित् मूर्त है । पृ. २८८, २४४ तथा पृ. १३३ १०१ पृ. २८४, २३७ (६) यह नय सच्चा है, यह नय झूठा है, ऐसा भेदभाव अनेकान्त के ज्ञाता पुरुष नहीं
करते । पृ. २५७ (नया संस्करण पृ. २३३) (७) क्रोध क्षमागुण का नाश करके उत्पन्न होता है । पृ. २८८, २४४ (८) रत्नत्रय के साधन विषयक लोभ से स्वर्गमोक्ष की प्राप्ति होती है । पृ. ३६९-७० (९) कारण के बिना भी कार्य उत्पन्न होता है । पृ. २९१ (१०) व्यवहार नय असत्य नहीं है । पृ. ७ (११) दिव्यध्वनि का विस्तृत वर्णन । पृ. १५ से ११८ (१२) यद्यपि सर्वघाती केवलज्ञानावरण केवलज्ञान या ज्ञान सामान्य का पूरी तरह
आवरण करता है। फिरभी उससे रूपी द्रव्य को जानने वाली कुछ ज्ञान किरणें निकलती हैं । इन्हीं ज्ञान किरणों के ऊपर शेष मति ज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण आदि चार आवरण कार्य करते हैं । फिर इन आवरणों के क्षयोपशम के अनुसार हीनाधिक ज्ञान-ज्योति छद्मस्थों के प्रकट होती रहती है । - इस तरह ज्ञानसामान्य(केवलज्ञान) पर दुहरे आवरण पड़े हैं। यह भगवद्वीरसेनीय मत है । जयध. १/४४, धवल
१३/२१४, जयध. १/२१ विशेषार्थ । जयध. १ प्रस्ता.पृ. ८६ आदि । (१३) औदयिक भाव से कर्मबन्ध होता है, औपशमिक क्षायिक मिश्र से मोक्ष ।
परिणामिक भाव बन्ध-मोक्ष का कारण नहीं। (१४) विपुलमति का ४५ लाख योजन जो क्षेत्र है, वह मानुषोत्तर के बाहर भी हो सकता
है । पृ. १९, (मूल धवल ९/६८ में यह कथन है) (१५) कषायपाहुड का कथन तो स्वसमय ही है । पृ. १३६ (१६) आयु का उत्कर्षण भी बन्ध के समय ही संभव है । पृ. १३४
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