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________________ पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला 1 में बताया है कि - (१) विवक्षित गुणस्थान को छोड़कर अन्यत्र जाकर पुन: उसी गुणस्थान जीव कितने समय बाद आ सकता है, (२) कर्मों के उपशम क्षय व क्षयोपशम से होने वाले जो परिणाम हैं, उन्हें भाव कहते हैं । वे भाव मिथ्यादृष्टि आदि में तथा नरक गति आदि में कैसे होते हैं, तथा (३) विभिन्न गुणस्थानादिक में जीवों की हीनाधिक संख्या कैसी है। छठा भाग चूलिका स्वरूप है । इसमें प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थान समुत्कीर्तन, तीन दण्डक, उत्कृष्ट स्थिति, जघन्यस्थिति, सम्यक्त्वोपत्ति तथा गति आगति नामक नौ चूलिकाएं हैं। इनमें से प्रथम दो चूलिकाओं में कर्मों के भेदों और उनके स्थानों की प्ररूपणा है । सम्यग्दर्शन के सम्मुख जीव किन-किन प्रकृतियों को बाँधता है इसके स्पष्टीकरणार्थ ३ दण्डक स्वरूप ३ चूलिकाएँ हैं । कर्मों की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति को छठी व सातवीं चूलिकाएँ बताती हैं। इस प्रकार पूर्व की सात चूलिकाओं द्वारा कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है । अन्तिम दो चूलिकाओं द्वारा सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति तथा जीवों की गति-आगति (जाना-आना) बताई गई है। इस प्रकार छठे भाग में मुख्यत: कर्म प्रकृतियों का वर्णन है । सातवें भाग में षट्खण्डागम के दूसरे खण्ड क्षुद्रक बन्ध की टीका है । जिसमें संक्षेपतः कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है। आठवें भाग में षट्खण्डागम के तृतीय खण्ड बन्धस्वामित्व विषय की टीका पूरी हुई है। कौन सा कर्मबन्ध किस गुणस्थान तथा मार्गणा में सम्भव है, यह इसमें वर्णित है । इसी सन्दर्भ में निरन्तर बन्धी, सान्तर बन्धी, ध्रुवबंधी आदि प्रकृतियों का खुलासा तथा बन्ध के हेतुओं (प्रत्ययों) का खुलासा है । अन्य भी विस्तार है । नवम भाग में वेदनाखंड सम्बन्धी कृति अनुयोगद्वार की टीका है । वहाँ आद्य ४४ सूत्रों की टीका में विभिन्न ज्ञानों की विशद प्ररूपणा की है । फिर सूत्र ४५ से अन्त तक कृति अनुयोगद्वार का विभिन्न अधिकारों में प्ररूपण किया गया है । दशवें भाग में षट्खण्डागम के वेदना खण्ड विषयक वेदना-निक्षेप, नयविभाषणता, नामविधान तथा वेदना द्रव्य विधान अनुयोगद्वारों का सविस्तार विवेचन है । ग्यारहवें भाग में वेदना - क्षेत्रविधान तथा वेदनाकाल विधान का विभिन्न अनुयोगद्वारों (अधिकारों द्वारा वर्णन करके फिर दो चूलिकाओं द्वारा अकथित अर्थ का प्ररूपण तथा प्ररूपित अर्थ का विशिष्ट खुलासा किया है । बारहवें भाग में वेदना भाव विधान आदि १० अनुयोगद्वारों द्वारा गुणश्रेणिनिर्जरा तथा अनुभाग से सम्बन्धित सूक्ष्मतम विस्तृत तथा अन्यत्र अलभ्य, ऐसी प्ररूपणा की गई है। इस तरह वेदना अनुयोगद्वार के १६ अधिकार तीन पुस्तकों (१०-११-१२वी) में सटीक पूर्ण होते हैं । षट्खण्डागम के पाँचवें खण्ड की टीका धवल पु. १३, १४ यानी तेरहवें चौदहवें भाग में पूर्ण हुई है। जिनमें तेरहवें भाग में स्पर्श, कर्म व प्रकृति, अनुयोगद्वार है । स्पर्श अनुयोगद्वार का १६ अवान्तर अधिकारों द्वारा विवेचन करके फिर कर्म अनुयोगद्वार का I 1 1 ८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004020
Book TitleDhaval Jaydhaval Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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