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पं. फूलचन्द्रशास्त्री व्याख्यानमाला अकल्प्य १६ अनुयोगद्वारों द्वारा वर्णन करके तत्पश्चात् अंतिम प्रकृति अनुयोगद्वार में ८ कर्मों का सांगोपांग वर्णन है । चौदहवें भाग में बन्धन अनुयोगद्वार द्वारा बन्ध बन्धक बन्धनीय (जिसमें २३ वर्गणाओं का विवेचन है तथा पाँच शरीर की प्ररूपणा भी है। तथा बन्धविधान इसका वहाँ प्ररूपण नहीं है, मात्र नामनिर्देश है) इन चार विभागों द्वारा प्ररूपणा की है। अन्तिम दो भागों (पन्द्रहवें-सोलहवें भागों) द्वारा शब्द ब्रह्म, लोकविज्ञ, मुनिवृन्दारक भगवद् वीरसेनस्वामी ने सत्कर्मान्तर्गत शेष १८ अनुयोगद्वारों (निबन्धन प्रक्रम आदि) की विस्तृत विवेचना की है।
इस तरह १६ भागों (भाग अर्थात् पुस्तक) में धवला टीका सानुवाद पूरी होती है। ___ षट्खण्डागम नामक मूल ग्रन्थ का छठा खण्ड महाबन्ध है । इसे ही महाधवल कहते हैं। यह मूल खण्ड ही इतना बड़ा (३० हजार श्लोक प्रमाण) है कि इस पर किसी भी आचार्य को टीका लिखने की जरूरत अनुभूत नहीं हुई। किसी ने लिखी तो भी वह मूल से भी छोटी ही रही (बप्पदेव ने ८००५ श्लोकों में महाबंध की टीका रची।) यही षट्खण्डागम का अंतिम खण्ड महाबन्ध या महाधवल अनुवाद सहित सात भागों में छप कर पूर्ण हुआ है। ____ इसमें सभी कर्म प्रकृतियों के बन्ध का सविस्तार व सांगोपांग वर्णन है । प्रथम पुस्तक में प्रकृति बन्ध का वर्णन है । द्वितीय तथा तृतीय पुस्तक में स्थिति बंध वर्णित है । चतुर्थ व पंचम पुस्तक में अनुभाग बन्ध तथा षष्ठ-सप्तम पुस्तक में प्रदेश बन्ध वर्णित है। केवली की वाणी द्वारा निबद्ध द्वादशांग से इसका सीधा सम्बन्ध होने से षट्खण्डागम अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थराज है, यह निर्विवाद सिद्ध है।
कषाय पाहुड सचूर्णिसूत्र की टीका का नाम जयधवला है । धवला के बाद जयधवला वीरसेन ने लिखनी प्रारम्भ की। जिसे भगज्जिनसेनाचार्य ने पूरी की, क्योंकि वीरसेन स्वामी जयधवला का एक तिहाई भाग लिखकर ही स्वर्गवासी हो गए थे। साठ हजार श्लोक प्रमाण यह जयधवला टीका उपर्युक्त दोनों आचार्यों द्वारा कुल मिलाकर २१ वर्षों के दीर्घकाल में लिखी गई । जयधवल शक सं.७५९ में पूर्ण हुई। यह जयधवला अनुवाद सहित १६ भागों में कुल ६४१५ पृष्ठों में मथुरा से प्रकाशित हुई है । इसमें मात्र मोह का वर्णन है । जिसमें दर्शनमोह तथा चारित्र मोह दोनों गर्भित हैं । शेष सात कर्मों की प्ररूपणा इसमें नहीं है । (जयधवल १/१६५, १३६, २३५ आदि) मोहनीय का जैसा, जितना सूक्ष्मतम, अचिन्त्य व मौलिक वर्णन इसमें है वैसा तथा उतना एवं उस विधा का वर्णन संसार के किसी ग्रन्थ में अब देखने को नहीं मिलता। विस्तृत विवेचन मूल जयधवला से ही ज्ञातव्य है।
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