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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला काय-चिकित्सा पर, मेघनाद ने बाल रोगों पर और सिंहनाद ने रसायन व बलवर्धक द्रव्यों (बाजीकरण) पर ग्रंथ रचना की थी।" अत: भटनागर का शल्य सम्बन्धी उपेक्षा का मत निरस्त हो जाता है । बाद में समन्त भद्राचार्य ने आठों अंगों विषयक सामग्री को एकत्रित
और सुनिबंधित कर अष्टांग आयुर्वेद संबंधी कोई महान् ग्रन्थ की रचना की थी। उग्रादित्य ने अपने गुरु श्रीनंदी से इसी का अध्ययन कर 'कल्याणकारक' की रचना की थी। इस प्रकार जैनाचार्यों ने अहिंसादि सिद्धान्तों का भलीभांति परिपालन करने हेतु नये वैज्ञानिक तरीके से “प्राणावाय” का अनुसरण किया और आयुर्वेद को नई दिशा दी । स्पष्ट है कि इससे पर्यावरण पर विशेष प्रभाव पड़ता रहा होगा तथा उन्हें, उग्रादित्य को जैसे अमोघवर्ष द्वारा सम्मान प्राप्य था, उसी प्रकार राज्याश्रय मिलता रहा होगा। इसके पश्चात् भी 19वीं सदी तक जैन वैद्यक ग्रन्थों की रचना होती रही जिसका विवरण नाहटा एवं नेमिचंद्र के लेखों से प्राप्त हो सकता है । [42] निस्संदेह अहिंसा के मूल सिद्धान्त ने आयुर्वेद को जो दिशा दी वह सूक्ष्म परमाणु की अधिकतम शक्ति के सिद्धान्त को भी लिये थी, और उसी के द्वारा संतुलित पर्यावरण निर्माण भी निर्मित होता रहा था।
जैन धर्म-दर्शन से प्रभावित कलाओं का विज्ञान __ जैन कलाओं में गृह-निर्माण, मूर्ति निर्माण, चित्र-निर्माण, संगीत और काव्यकृतियाँ सभी किसी न किसी रूप में प्रसिद्ध हुई हैं । दक्षिण में गोम्मटेश्वरादिकी मूर्ति एवं कक्ष, आबू में मंदिर निर्माण शैली, मिनिएचर जैन पेंटिंग, विविध संगीत एवं समन्तभद्राचार्यादि की काव्य कृतियाँ अपने आप में न केवल कला की अद्वितीय प्रतिभा से ओतप्रोत हैं वरन् उनमें विज्ञान के गहरे रहस्य भी वीतरागता को लिए छिपे हुए हैं । वस्तुत: जैन धर्म में अनेकान्त दृष्टि के अनुसार जीवन के समस्त पक्षों पर यथोचित प्रयोग किया गया है। जैन धर्म ने आत्मा को परमात्मा बनाने का स्वतंत्र पक्ष दिया, कर्म सिद्धान्त द्वारा प्रत्येक जीव को स्वयं के लिए उत्तरदायी बनाया, संयम द्वारा समाज को सुव्यवस्थित किया, मुनिधर्म द्वारा सर्वथा नि:स्वार्थ, निस्पृह, निरीह, सिंहवृत्ति - पूर्ण वीतरागता का, कल्याण का आदर्श उपस्थित किया। उसने 72 कलाओं का विशद वर्णन दिया और इन सभी में गणित के उपयोग ने उन्हें भी वैज्ञानिक बना दिया—जैसा महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रह में कहा है
“लौकिके वैदिके वापि तथा सामायिकेऽपि यः। व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते ॥9॥ कामतन्त्रेऽर्थशास्त्रे च गांधर्वे नाटकेऽपि वा। सूपशास्त्रे तथा वैद्ये वास्तुविद्यादि वस्तुषु ॥ 10 ॥ छन्दोऽलङ्कारकाव्येषु तर्कव्याकरणादिषु । कलागुणेषु सर्वेषु प्रस्तुतं गणितं परम् ॥ 11 ।।
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