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पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
सूर्यादिग्रहचारेषु ग्रहणे ग्रहसंयुतौ । त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ च सर्वत्राङ्गीकृतं हि तत् ॥ 12 ॥ द्वीपसागरशैलानां संख्या व्यासपरिक्षिपः।। भवनव्यन्तरज्योतिर्लोककल्पाधिवासिनाम् ॥ 13 ॥ नारकाणां च सर्वेषां श्रेणीबन्धेन्द्रकोत्कराः। प्रकीर्णकप्रमाणाद्या बुध्यन्ते गणितेन ते ॥14॥ प्राणिनां तत्र संस्थानमायुरष्टगुणादयः। यात्राद्याःसंहिताद्याश्च सर्वे ते गणिताश्रयाः बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे।
यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन विना न हि ॥ 16 ॥” (अध्याय-९) जैन वास्तुकला, जैन आगम, करणानुयोग साहित्य से प्रभावित रही है । तिलोयपण्णत्ति में (अधि. 3, गा. 22-62) असुरकुमारादि भवनवासी देवों के भवनों, वेदिकाओं, कूटों, जिन मन्दिरों वा प्रासादों का दर्शन करते हैं, जिनमें सुव्यवस्थित रूप से समानुपातिक मापों के अनुसार निर्मित विविध वस्तुएँ होती हैं। इसी प्रकार मेरु की रचना, नन्दीश्वर द्वीप की रचना, समवसरण की रचना, मानस्तम्भों की रचना, चैत्य वृक्ष, स्तूप, श्रीमंडप, नगरविन्यास चैत्य रचना आदि के वर्णन के अनुसार पूरी सामग्री प्राप्त हुई है । [44]
इसी प्रकार प्राचीन काल से एकान्तवास जैन मुनियों की साधना का आवश्यक अंग बतलाया गया है (तत्त्वार्थसूत्र 7,6 सर्वार्थसिद्धि)। अत: अनेक निवास, पर्वतों और वन की शून्य गुफाओं, कोटरों में जिन मूर्ति सहित, निर्जन स्थानों में बनवाने की योजना बनती रही होगी। प्राकृतिक गुफाओं को साधना स्थल मानकर अकृत्रिम चैत्यालय कहा गया होगा। सबसे प्राचीन गुफाएँ बराबर व नागार्जुनी पहाड़ियों पर स्थित हैं, जो ई.प. तृतीय शती की प्रतीत होती हैं। ये गया से प्राय: 30 किलोमीटर दूर स्थित हैं। ये कठोर तेलिया पाषाण को काटकर मंडप सहित बनाई गई हैं । ई.पू. द्वितीय शती में उदयगिरि की 'हाथी गुफा' में सम्राट् खारवेल का इतिहास प्रसिद्ध प्राकृत शिलालेख प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार राजगिरि, प्रयाग तथा (कौशाम्बी) या कौसम, जूनागढ़, चन्द्रगिरि उस्मानाबाद, तेरापुर, सित्तन्नवासक, बादामी, ऐहोल, एलोरा, अंकाई, तंकाई, ग्वालियर आदि स्थानों पर जैन गुफाएँ निर्मित की गई हैं। [45] __ तत्पश्चात् जैन मंदिरों की निर्माण विधि विभिन्न शैलियों में अपने चरम उत्कर्ष तक पहुँची हैं । पाँच शैलियों में नागर, द्राविड़ और बेसर शैलियां गुप्तकाल से प्रारंभ हुईं। देवगढ़, खजुराहो, मुक्तागिरि, कुंडलपुर, सिद्धवरकूट, चूलगिरि, बड़ली, ओसिया, नौलखा, आबू, देलवाड़ा, शत्रुजय, गिरनार आदि की कला देखने योग्य है । [46]
खारवेल के शिलालेख से ज्ञात होता है कि ई.पू. चौथी-पाँचवीं शती में भी जिन
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