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पं.फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला
___ 13 पुद्गल सम्बन्धी इतनी जानकारी को लिए जैन आचार्यों ने अनेक वैद्यक ग्रन्थों की रचना भी की। राजेन्द्र भटनागर ने जैन विद्वानों द्वारा वैद्यक कर्म अंगीकार किये जाने पर चिकित्सा में दो प्रभाव परिलक्षित हुए माने हैं। [41] 1. अहिंसावादी जैनों ने शवच्छेदन प्रणाली और शल्य चिकित्सा को हिंसक कार्य
मानकर चिकित्सा कार्य से उन्हें अप्रचलित कर दिया। परिणाम स्वरूप हमारा शरीर सम्बन्धी ज्ञान शनैः शनैः क्षीण होता गया और शल्य चिकित्सा का ह्रास हो गया। उनका यह पूर्ण निषेध भारतीय शल्य चिकित्सा की अवनति का
एक महत्त्वपूर्ण कारण बना। 2. जहाँ एक ओर जैन विद्वानों ने शल्य चिकित्सा का निषेध किया, वहाँ दूसरी
ओर उन्होंने रस योगों (पारद संनिर्मित व धातुयुक्त व भस्में) और सिद्ध योगों
का बाहुल्येन उपयोग करना प्रारम्भ किया।... 3. भारतीय दृष्टिकोण के आधार पर रोग निदान के लिए नाड़ी परीक्षा, मूत्र परीक्षा
आदि को भी जैन वैद्यों ने प्रश्रय दिया ।... 4. औषधि चिकित्सा में माँस और माँस रसादि योग जैन वैद्यों द्वारा निषिद्ध कर
दिये गये।... 'कल्याणकारक' नामक जैन-वैद्यक ग्रन्थ में तो माँस के निषेध
की युक्तियुक्त विवेचना की गई है। 5. इस प्रकार केवल वानस्पतिक और खनिज-द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन
आयुर्वेदज्ञों द्वारा चिकित्सा-कार्य में विशेष रूप से प्रचलन किया गया।... पुन: भटनाकर के अनुसार अपने धार्मिक सिद्धान्तानुसार ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है, जैसे रात्रि-भोजन निषेघ, मद्य, माँस, मधु, का वर्जन आदि । अहिंसा तथा अंतिम लक्ष्य पारमार्थिक स्वास्थ्य लाभ कर मोक्ष मार्ग को अपनाया है। वस्तुत: मक्ष्याभक्ष्य, सेकासेक आदि पदार्थों का उपदेश भी दिया गया है । जैनाचार्यों द्वार प्रतिपादित आयुर्वेद को “प्राणावाय” के अन्तर्गत माना जाना चाहिये, चाहे वैद्यक ग्रन्थों की उपलब्धि प्राय: सातवीं सदी से पंजाब, राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और कर्णाटक में हुई हो । हस्तिरुचि कृत वैद्यवल्लभ और हर्षकीर्तिसूरिकृत योगचिंतामणि का विशेष प्रचार प्रसार रहा है । प्राणावाय बारहवाँ पूर्व है । दिगम्बर आचार्य उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' के प्रथम परिच्छेद में “प्राणावाय” के इस भूलोक पर अवतरण और परम्परा का वर्णन किया है। भगवान आदिनाथ ने पुरुष, रोग, औषधि और काल द्वारा “वस्तु चतुष्टय" के लक्षणों आदि का वर्णन किया है और परम्परा से यह ग्रंथ उसी प्रकार रचित हुआ है। उग्रादित्य के अनुसार, “पूज्यपाद ने शालाक्य संबंधी, पात्रस्वामी ने शल्यतन्त्र पर, सिद्धसेन ने विष और उग्र ग्रह शमन-विधि पर, दशरथ गुरु ने .
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