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________________ पं. फूलचन्द्र शास्त्री व्याख्यानमाला 5,... अनन्त तक तथा 0 से लेकर 2, 4,6... अनन्त तक माने गये हैं। कहां और कैसे इनका बंध हो सकता है और कहाँ बंध वर्जित है, यह विधान किया गया है। [36। इत्यादि रूप यह वर्णन वैज्ञानिक भी कहा जा सकता है। किन्तु उन्नति वहाँ तक होनी चाहिये जहाँ आज के अणु की संरचना भी समझाई जा सके। ___ जहाँ पुद्गल सम्बन्धी ज्ञान कर्म-सिद्धान्त में प्रवेश करता है वहाँ वह अत्यन्त जटिल निरूपण तक पहुँचता है। गोम्मटसार और लब्धिसार की टीकाओं में ये प्रकरण कर्म द्रव्य को लेकर वर्णित किये गये हैं । इनकी कर्णाटक वृत्ति (केशववर्णीकृत), संस्कृत टीका तथा सम्यग्ज्ञानचंद्रिकाटीका (मुनि नेमिचंद्र की संस्कृत टीका पर आधारित पं. टोडरमल की टीका) क्रमश: कलकत्ता 1918, एवं भारतीय ज्ञानपीठ से क्रमश: 1978-1981 में चार खंडों में प्रकाशित हुई है। इनमें अर्थ संदृष्टि मय गणितीय निरूपण दिये गये हैं। लब्धिसार की टीका उसी रूप में अगास से प्रकाशित हई है। [37। इनमें वैज्ञानिक अध्ययन किये गये हैं और आगे भी किये जा सकते हैं। प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति को लिए पद्गल कर्म द्रव्य के चारों प्रमाण गणित का विषय बन जाते हैं और सभी कर्म बंध संबंधी दशाओं में परिवर्तन के प्रमाण प्रदेश और अनुभाग को तथा काल को लिए प्रवृत्तियों के साथ-साथ चाहते हैं । [38] यह प्ररूपणा समूह रूप के गणित को लेकर चलती है और अर्थ, अंक तथा आकार रूप संदृष्टियों को लेकर चलने से यथार्थ विज्ञान का विषय बन जाती हैं । अज्ञात को ज्ञात राशियों द्वारा प्रतिसमय करणों आदि के अनुसार परिवर्तन, परिणमन प्रकट करते चलना, यह लब्धिसार में दिया गया है । [39] कर्मबंध की दशाओं का वर्णन गोम्मटसार में, जो षटखंडागम धवल टीकादि के सार रूप हैं, तथा कर्मबंध के उपशम, क्षय को लेकर मुक्त होने तक के विभिन्न कर्म प्रक्रियाओं में होने वाले परिणमन आदि का विवरण लब्धिसार में मिलता है जो कषायप्राभृत के या जयधवला के सार रूप है । सत्वादि दशाएँ, आस्रव, निर्जरादि दशाएँ, अपकर्षण, उत्कर्षण आदि, निधत्ति, निकाचन आदि सभी के गणितीय निरूपण से यह ज्ञान आज के प्रणाली सिद्धान्त और नियंत्रण सिद्धान्त (System theory and Cybernetics) के समतुल्य हैं और जीव, पुद्गल (Bios and Matter) से संबंधित एक सूत्री होने से ऐसे स्तर का कहा जा सकता है कि इस स्तर तक आज का विज्ञान भी नही पहुँच सका है, हालांकि जैन कर्म-सिद्धान्त विषयक यह नमूना अभी तक किन्हीं संयन्त्रों की परिधि में नहीं लाया गया है और उसके प्रयोगों को मापा भी नहीं गया है, किन्तु यदि उसे आनुमानिक संभावनाओं के गणित पर आधारित कम्प्यूटर पर बैठाया जा सके तो उसकी गहराइयों और आन्तरिक भावनाओं तक पहुँचा जा सकता है जिनके आधार पर यह नमूना तैयार किया गया होगा और अमूर्त कल्पनाओं के गणित संकेतों द्वारा रचा गया होगा । [40] Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004019
Book TitleJain Dharm Darshan ke Pramukh Siddhanto ki Vaignanikta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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