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________________ संसारी प्राणियों की अवस्था कों जल जानि दोड्या, सो जल न देखि खेद प्राप्त भया । तैसैं तू विषय तृष्णाकरि पीड़ित कनक, कामिनी आदि वस्तुनिक सुखके कारण जानि वृथा अभिलाषी भया। तहाँ लेशमात्र हू सुख नाहीं। काहै तैं, जो ए पदार्थ दुःख ही के कारण हैं । काहूर्फे तौ किछू ही न मिले ता करि खेद खिन्न रहै। अर कदाचित् काहक कछुइक मिलै तो मनोवांछित न मिलै ता करि व्याकुल रहै ।' अर कदाचित् कोऊ मनकी चाही हू वस्तु मिलि जाय तो थिर नाहीं। तारौं सदा तृषातुर ही रहै । अर ये इन्द्रिय पाँचूं ही जीवनिकू दुःखदाई हैं । जिनि अति अनुरागकरि एक एक हू इन्द्रियका विषय सेया ते तृप्ति ह न भये, क्लेश अर नाश । प्राप्त भये। हाथी तौ स्पर्श इन्द्रियके अनुराग करि कागद की हथणीकूँ साक्षात् जाँणि ताकैं निकटि आया सो खाड़े मैं पड्या, सो पराधीन होय नाना दुःख भोगवता भया । अर रसना इन्द्रियके अभिलाषकरि मीन धीवरके जालमें पड्या सो प्राण ही तें गया । अर नासिका इन्द्रियके वशि होय भ्रमर कमलकी वासतें तप्त न भया सो सूर्यास्त समयमैं कमल मुद्रित भया तामैं यह रुकि मरणके प्राप्त भया। अर नेत्र इन्द्रियके विषयतें आसक्त होय पतंग दीपककी शिखाकू मनोज्ञ जानि पड्या सो भस्म होय गया। करण इन्द्रियकी चाहितैं हिरण रागका अनुरागी होय शिकारीके बाणते प्राण तजता भया। या भाँति एक एक इन्द्रियकै विषय सेवन” या दशा कू प्राप्त भए। अर जे पाँचूं ही इंद्रीनिकै विषय सेवे सो भवसमुद्र मैं दुःख पावै ही पावै । तातें तू विषयाभिलाष तजि, सुखका कारण वीतराग भाव। अंगीकार करि। ___ आगे कहै है कि संसारविर्षे परिभ्रमण करता ऐसे चरित्र आपकै प्रत्यक्ष देखता तूं क्यों न वैराग्य 1 है प्राप्त होय - शार्दूल छंद उत्पन्नोऽस्यसिदोषधातुमलवद्दे होऽसि कोपादिवान् साधिन्याधिरसि प्रहीणचरितोऽस्यस्यात्मनो वश्चकः । मृत्युव्यात्तमुखान्तरोऽसि जरसा ग्रास्योऽसि जन्मिन् ! वृथा कि मत्तोऽस्यसि किं हितारिरहिते किं वासि बद्धस्पृहः ॥५४॥ ___ अर्थ हे अनंत जन्मके धरणहारे ! अज्ञानी जीव ! तू या संसारविर्षे अनेक जोनिमैं उपज्या महा दोषरूप धातु अर मल तिनिकरि युक्त है देह तेरा, अर क्रोध, मान, माया, लोभका धारक तूं मनकी चिंता अर तनकी १. निल ता करि व्याकुल रहैं ज० उ० ५३-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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