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आत्मानुशासन नाम मात्र हू नाहीं। जा दिवसका प्रभात होय है सो ही दिवस अस्त। प्राप्त होय है। तारौं तूं कौन कारण जगत विर्षे बारम्बार आशा बांधि भ्रमै है। ___ भावार्थ-इह संसारका चरित्र क्षणभंगुर है । जो पर्याय धरै सो नाशकौं प्राप्त होय है। जैसे दिवसके आरम्भविर्षे प्रभात होय अर वही दिवस संध्या समै अस्त होय । यह जगत कालरूप प्रचंड पवनकरि चंचल है । बाल, वृद्ध सब ही यह जानै हैं । तोहि कहा न सूझै है । तूं या संसार असारविर्षे आशा बाँधि काहै। भ्रमण करै है ? भ्रांति तजि करि वस्तुका स्वरूप यथार्थ क्यों न जानै ? विनश्वर वस्तुविर्षे कहा वांछा करै ? - आगै कहै है कि या प्रकार जगतके स्वरूपङ क्षण भंगुर न विचारता जो तूं सो त चतुर्गति संसारविर्षे अनेक प्रकार दुःख भोगये
शार्दूल विक्रीडित छन्द संसारे नरकादिषु स्मृतिपथेप्युद्वेगकारिण्यलं
दुःखानि प्रतिसेवितानि भवता तान्येवमेवासताम् । तत्तावत्स्मर सस्मरस्मितशितापाङ्गरैनङ्गायुधै
र्वामानां हिमदग्धमुग्धतरुवयत्प्राप्तवान् निर्धनः ।।५३।। अर्थ हे जीव ? तैं या संसारविर्षे नरकादिक योनिमें अत्यन्त दुःख भोगये ! जिनिके स्मरण किये व्याकुलता उपजै । सो उन दुःखनिकी बात तो दूरि ही रहौ, या नर भव ही विर्षे निर्धनताका धरनहारा तूं नाना प्रकारके भोगनिका अभिलाषी कामकरि पूर्ण जे स्त्री तिनिका मंद हास्य अर कामके बाण तिनिके तीक्ष्ण कटाक्ष तिनिकरि बेध्या संता दाहेके मारे बाल वृक्षकी सी दशा कौं प्राप्त भय; सो ए दुःख ही चितारि । ___ भावार्थ-तू अनादि कालका अविवेकी है सो क्षण-भंगुर जगत की माया सू अनुरागकरि संसारविर्षे नरक निगोदादिक मैं अनेक दुःखनिका भोगनिनहारा तूं भया । सो उन दुःखनिकी बाततो दूरि ही रहौ जिनका चितवन ही किये अत्यन्त क्लेश उपजै । अर ये नरभव अति दुर्लभ पाया ताह मैं विषय तृष्णाकरि सुखका लेश न पाया । कामके तीक्ष्ण बाण जे मदोन्मत्त स्त्रीनिकी कटाक्ष तिनिकरि पीड्या, दाईके झुलसे ऊगते वृक्षकी सी दशाको प्राप्त भया । सो इह चितारि जगतकी वांछारौं निवृत्त होहु । जगतकी वांछा मृगतृष्णावत् है। जैसे कोऊ मृग वनवि तृषातुर भाडली
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