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आशारूपी नदीको पार करनेका उपाय अर्थ-हे जीव ! तूं यथार्थ वस्तुकू नाहीं जाने है । यह इष्ट, यह अनिष्ट ऐसी कल्पनाकरि बाह्यवस्तुनिविर्षे बारम्बार आसक्त होय करि कहा वृथा काल गमावै है । अंतःकरणविषै शांत दशाकौं प्राप्त होहु । जो लग उदयकौं न प्राप्त भया निर्दै काल ताकी दैदीप्यमान ज्वालाकरि भयानक जो ताकै मुख विर्षे भस्म नहीं होय ता पहली अंतःकरणविर्षे राग-द्वेष करि त्याग करि परम शांतदशाकू प्राप्त होहु।
भावार्थ-जे यथार्थ वस्तुका स्वरूप नाहीं जाने हैं ते धन स्त्री राज्यादिक... भले जाने हैं, अर दुःख दारिद्र, रोगादिककू बुरा जानै है। ऐसी इष्ट-अनिष्ट कल्पनाकरि बाह्य वस्तुनिविर्षे आसक्त होय वृथा काल गमावै है, सो श्रीगुरु भव्यजीवनिक उपदेश दे है। अहो भव्य ! इह इष्ट अनिष्ट कल्पना तजि बाह्य वस्तुनिबिर्षे बारम्बार आसक्त होय कहा वृथा काल गमावै है। जौ लग तूं कालके भयानक उठराग्निविर्षे भस्म न होय ता पहली रागद्वेषकू तजि अन्तःकरणविर्षे शांत दशाकू प्राप्त होहु । यह इष्ट अनिष्ट कल्पना मिथ्या है। ___ आगै कहै हैं कि यह आशारूप नदी तोहि बहाय करि भवसमुद्र विषै डारै है तारौं ता थकी तिरिबेका उपाय करि, ऐसा दिखावै हैं:
शार्दूलविक्रीडित छन्द आयातोऽस्यतिदूरमङ्ग परवानाशासरित्प्रेरितः, किं नावैषि ननु त्वमेव नितरामेनां तरीतु क्षमः । स्वातन्त्र्यं व्रज यासि तीरमचिरान्नो चेद् दुरन्तान्तक
ग्राहव्याप्तगभीरवक्त्रविषमे मध्ये भवाब्धेर्भवेः ॥४९॥ ___ अर्थ हे मित्र ! तू परवस्तुका अभिलाषी भया संता आशारूप नदीका प्रेरया अनादि कालका अनंत जन्म धरता अति दूरतें आया है सो तूं कहा न जानै है । यह आशारूप नदी और काह उपायकरि न तिरी जाय । या आशारूप नदीकू आत्मज्ञानकरि तूं ही तिरिवे समर्थ है । तातें अब शीघ्र ही स्वाधीनताकं प्राप्त होहु । या आशारूप नदीकं तिरि, पैली तीर जाही नातर आशा नदीका प्रेरया भवसागरकै मध्य डूबेगा । कैसा है भवसागरदुःखकरि है अन्त जाका ऐसा जो कालरूप ग्राह ताका कारया जो गंभीर मुख ताकरि अति भयानक है।
१. स्वाधीनताकू तिरि पैली पार जाहु ज० पू० ४९-९.
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