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आत्मानुशासन
दुःख नाहीं । अरं ज्ञान सोई है जो विषै अज्ञान नाहीं । अर गति सोई है जहाँ तैं बहुरि पाछा आवना नाहीं ।
भावार्थं - जहाँ लेशमात्र हू हिंसादिक पाप है तहाँ धर्म नाहीं, अर जहाँ संक्लेशरूप दुःख है तहाँ सुख नाहीं । अर जहां संदेहरूप अज्ञान है तहाँ ज्ञान नाहीं । अर जहाँ जाइ करि बहुरि पाछा आइए, जन्म-मरण होइ, सो गति नाहीं ।
आगे कोऊ आशंका करे है - जो ऐसे अविनाशी सुखादिक तो कष्टसाध्य हैं अर यह धनका उपार्जन सुखसाध्य है, तातैं याही विषै प्रवृत्ति करिये, सो ऐसी आशंका करनहारे समझावे हैं:
वसंततिलका छंद
वार्तादिभिर्विषयलोलविचारशून्यं क्लिश्नासि यन्मुहुरिहार्थपरिग्रहार्थम् । तच्चेष्टितं यदि सकृत् परलोकबुद्धया
न प्राप्यते ननु पुनर्जननादि दुःखम् ||४७ ||
अर्थ - हे विषयके लोलुपी ! विचार रहित ! तू जो असि, मसि, कृषि, वाणिज्यादि उद्यमकरि या लोकविषै धनके उपार्जिवे अर्थि बारम्बार क्लेश करै है सो ऐसा उपाय जो एक बार परलोकके अर्थ करै तौ बहुरि जन्म-मरणादि दुःख न पावै । अहो ! तू धनका साधन छोड़ि धर्मका साधन करि ।
भावार्थ — जे विषयके लोलुपी हैं अर जिनमें विचार नाहीं ते खेती आदि उपायनिकरि धनके अर्थि बारम्बार उद्यम करै हैं सो श्रीगुरु दयाल होय भव्यजीवनिक उपदेश दे हैं - अहो ! जैसा तूं धनके अर्थ बारम्बार क्लेश करै है तैसा जो एक बार हू परलोककै अर्थि उद्यम करे तो बहुरि जन्म-मरणादि दुःख न पावै, भव सागर तैं तिरै ।
आगै परलोकके उपायविषै दृढ़ता उपजायवे अर्थि बाह्य पदार्थनिविषै राग-द्वेष छड़ावे है:
शार्दूलविक्रीडित छंद
संकल्प्येदमनिष्टमिष्टमिदमित्यज्ञातयाथात्म्यको
बाह्य वस्तुनि किं वृथैव गमयस्यासज्य कालं मुहुः । अन्तः शान्तिमुपैहि यावददयप्राप्तान्तकप्रस्फुर
ज्ज्वाला भीषणजाठरानलमुखे भस्मीभवेन्नो भवान् ॥ ४८ ॥
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