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अर्थोपार्जनमें न्यायवृत्ति कितनी ? अर्थ-निश्चयसेती या तृषातुरकी तृषा पूर्ण न होय । उदयागति कष्टकारी है। कोऊ पुरुष जलकी आशाकरि निवाँण खोदनेका अभ्यास करता भया सो खोदतै संतै शिल निकसी। तब खोदनहारा आरंभके सिद्धि करिवेक बहुरि पातालपर्यन्त खोदता भया। सो बड़े कष्टतै तुच्छ जल निकस्सा सोऊ क्षार अर दुर्गंध कृमिनिकी पंक्ति करि संजुक्त, सोऊ तत्काल सूखि गया। तातै यह उद्यम कहा करै ? उदयकी चेष्टा प्रबल हैं। __ भावार्थ-कोऊ जाणें मैं उपायकरि अर्थसिद्धि करूँ सो पुण्यके उदयविना उपायकी सिद्धि न होय । सोई कथन दृष्टान्त करि दृढ़ करै हैं । काहू एक तृषातुर पुरुषने जलकी आशाकरि भूमि खोदनेका अभ्यास किया सो खोदतै शिला निकसी। तब खेद खिन्न होय अति औंडा पाताल पर्यंत खोद्या। तहाँ रंचमात्र जल निकस्या, सोऊ खारा अर दुर्गंध लटनि करि भरया सोहू तत्काल सूखि गया । तातें याका किया कहा होय ? उदयकी चेष्टा बलवान है।
आगै कोऊ कहै है कि मैं न्याय वृत्तिकरि अर्थका उपार्जन करूं अर संपदाकी वृद्धिकरि सुख भोगऊँ सो ऐसी बात कहै ताहि समझावै हैं :
शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न संपदः । नहि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदाप सिन्धवः ।।४।। अहो प्राणी ! न्यायके आचरणकरि उपाा जो धन ताहू करि उत्तम पुरुषनि हू के सुख संपदा नाहीं बढे है। जैसे निर्मल जलकरि कदाचित् भी समुद्र नाही.पूर्ण होवै है। ___भावार्थ- अयोग्य आचरण तौ सर्वथा त्याज्य ही है। अर योग्य आचरणकरि उपाा जो धन ताहू करि विशेष संपदाकी वृद्धि नाहीं । जैसे कदाचित् हू निर्मल जलकरि समुद्र नाहां पूर्ण होय है। ता” न्यायोपार्जित धन हू की तृष्णा तजि सर्वथा निःपरिग्रही होहु।
आगै कहै हैं ऐसी कोऊ माने है कि जो कछूक संपदाकी वृद्धि होइ सो होहु । तथापि यह गृहस्थपना, धर्म, सुख, ज्ञान अर सुगति इनिका साधन है सो या भाँति मानें ताकूँ समझावै हैं:
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः॥४६।। अर्थ-धर्म सोई है जा विर्षे अधर्म नाहीं । अर सुख सोई है जा विर्षे
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