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________________ आत्मानुशासन अर लेखनीधर लेखा करते करते खेद-खिन्न होय है । अल्प प्रयोजनकै अथि सदा पराधीन ही रहै । इनि उपायनिमैं तूं सुख चाहै है सो बालू रेत मैं तेल हेरै है । अर विष” जीया चाहै है। यह विपरीत बुद्धि तजि, आशारूप खोटा ग्रह तेरै अनादि तै लाग्या है। या करि तैं कबहू सुख न पाया । अब याके निग्रहतें सुख है सोतें अब तक न जान्याँ तार्तं भव भ्रमण किया। आगे कहै हैं कि सुखका उपाय संतोष ही है। ठौर ठौर ग्रंथनिमैं आशाका निग्रह ही उपदेश्या है सो यह न जानते ए प्राणी विपरीत चेष्टा करें हैं। आशाहुताशनग्रस्तवस्तूच्चैवंशजां जनाः । हा किलैत्य सुखच्छायां दुःखधर्मापनोदिनः ॥४३॥ आशारूपी अग्नितें जरे, कनक कामिनी आदि वस्तुनिकौं निश्चयसेती भले जानि सूखके अथि अर तापका निवारिवे अथि आयकरि बांसको छाया ग्रहै सो वृथा है, ताकरि घामका आताप न मिटै।। ___ भावार्थ--बांसकी छाया तापहारी नाहीं, विघ्नकारी है। बांस आपसि मैं घसि जरि उठै तो बैठनिहारो भस्म होय जाय । अर बाँसका गोभा निकसनी आवै तो तत्काल शरीर भिदि जाय त्यौं ही विषयका सेवनहारा या भव तौ इनके उपार्जन तथा सेवन” अथवा वियोग” महा दुखी होय है। सदा तृष्णा करि व्याकुल भया खेदरूप है। अर पर भव नरकनिगोदकं प्राप्त होय है। ए विषय सर्वथा सुखकारी नाहीं। संसारी जीव विवेक बिना आशारूप अग्निकरि, जरया कनक, कामिनी आदि वस्तुनिका सुख कै अथि अनुरागी होय है सो इनिमैं रंचमात्र सुख नाहीं। ए भव-भव दुखदाई हैं । या संसार असार विर्षे सुख काहैका ! यह संसारकी माया बाँसकी छाया समान है, ग्रहिवे योग्य नाही, तजिवे योग्य है। ___ आगै कहै हैं कि दैवयोग” काहूकै तुच्छमात्र सुख प्राप्त भया सो स्थिर नाहीं सो यह बात दृष्टांतकरि दृढ़ करै हैं: शार्दूल विक्रीडित छंद खातेऽभ्यासजलाशयाऽजनि शिला प्रारब्धनिर्वाहिणा भूयोऽभेदि रसातलावधि ततः कृछात् सुतुच्छं किल । क्षारं वायुदगात्तदप्युपहतं पूति कृमिश्रेणिभिः शुष्कं तच्च पिपासतोऽस्य सहसा कष्टं विधेश्चेष्टितम् ॥४४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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