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गृहस्थाश्रममें सुख नहीं उपार्जे । कबहूक स्त्रीसेवन शृंगारादिक करि पाप ही उपार्जे । अर कबहूक पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, चैत्यालय निर्मापण इत्यादि कार्यनि करि विशेष पुण्य अल्प पाप उपार्जें है । तातै यह गृहस्थाश्रम तजिबे ही योग्य है, कल्याणकारी नाहीं। जैसे आंधा जेवडीकू वलै सो उधडती चली जाय, अर हाथी स्नान करै सिर परि धरि डारे, तातें उन्मत्तचेष्टा है। __ आगे कहै हैं कि शाश्वती मोक्षसंपदा तिसका जो साधक होय सो उपकारी कहिए । यह गृहस्थाश्रम शिवसम्पदाका साधक नाहीं। तात या विर्षे जीवका हित नाहीं। यह गहस्थावस्था अर या विषै असि कहिये खड्गवृत्ति अर मसि कहिये स्याही ता करि लिखनीवृत्ति, अर कृषि कहिये खेती अर वाणिज्य कहिये व्यापार सो सब दुःख ही के साधक हैं। इनमें सुखका साधक कोऊ नाहीं ऐसा दृढ करि दिखावै है
शार्दूल विक्रीडित छन्द कृष्ट्वोप्त्वा नृपतीन्निषेव्य बहुशो भ्रान्त्वा वनेऽम्भोनिधौ किं क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिरं हा कष्टमज्ञानतः । तैलं त्वं सिकतास्वयं मृगयसे' वाञ्छेद्विषाज्जीवितु नन्वाशाग्रहनिग्रहात्तव सुखं न ज्ञातमेतत् त्वया ॥४२॥
अर्थ हे जीव ! तू या गृहस्थाश्रमविषै सुखकै अथि कहा क्लेश करै है, यामैं सुख नाहीं । तूं हलसूं धरती जोति बीज वाहै है अर खड्ग धारणकरि राजानिक सेबै है, अर लेखन वृत्तिकरि उद्यम करै है, अर वाणिज्यवृत्तिकरि वन अर समुद्र विषै बहुत भटकै है । अज्ञान” चिरकाल ए कष्ट करै है सो हाय हाय ! तूं बालू रेतविषै तेल ढूढे है। अर विषक् जीया चाहै है। अहो प्राणी ! आशारूप ग्रह ताके निग्रहतें ही तोहि सुख है, तृष्णाकरि सुख नाहीं । यह तैं न जाण्या तारौं अजाण हुवा परिश्रम करै है। ___ भावार्थ-गृहस्थाश्रमविर्षे असि, मसि, कृषि, वाणिज्य ए ही उपाय सो सब दुखदाई, इनमें सुख नाहीं। खेतीका तो प्रगट खेद निजरि ही आवै है। सदा क्लेश, कुग्रामवास, क्रियाकी हीनता, मानभंग, स्वचक्रपरचक्र आदि सप्त ईतिका भय । अर खड्गधारी आजीविकानिमित्त नृपकू सेवै है सो नृपतिसेवा महाकष्टकारी है। जीवकाकै आर्थि जीव ही दे है। अर व्यापारी व्यापारके आर्थि समुद्रनिमैं जहाज बैठे जाय हैं सो कबहूक जहाज ही डूबि जाय है । अर महागंभीर वननिमैं भटिकै हैं । इनकै दुख कहाँ लौं कहैं। नाना प्रकारकी हानि-वृद्धिकरि सदा व्याकुल ही रहै हैं । १. सिकतासु यन्मृगयसे मु० ४२-१.
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