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आत्मानुशासन
पात्रमैं डारया। तब काहू. कही तैं बुरा किया, ऐसी जायगांका परया लाडू न लेनां । तब यह कहता भयाः-तू चुप होय रहु । मैं यह लाडू न भखोंगा । परन्तु आश्रमविषै लेजाय धोय करि डारि धूगा। तब लोगनि बहत हास्य करी अर कही-तूं लाडू न भखै अर धोय करि डारै तो मलीन जायगाँका उठाय पात्रमैं क्यों डारै ? पड्या ही रहने दे। सो जैसे लाडूकै उठायवे करि भौतिककी हास्य भई तैसैं तू हू कहै है जो मैं परिग्रह सम्पदा भोगि पीछे तजूंगा सो यह माया मलिन जायगांके पडे लाडू समान है। तोहि अंगीकार ही करना योग्य नाहीं । तजनी तो है ही तो ग्रहण ही काहेकू करै । जिमि चक्रवर्त्यादि राजानि राज संपदा भोगई तिनिहूं तजी तब मुक्त भये, सो तूं कुमार अवस्था ही तैं तजि, ज्यों उनहू तें उत्कृष्ट होइ । जैसे कहू एक पुरुषकै कीच लागा था सो धोयकरि उज्ज्वल भया । अर जो कीच लगावै ही नाहीं सो सर्वोत्कृष्ट है। अर कीच लगाय कर धोया चाहै सो हास्यका स्थानक होय । ____ आगें कहैं हैं कि शाश्वती निर्वाण विभूति ताकै साधक निग्रंथ मुनि ही हैं। गृहस्थावस्थाविर्षे निर्वाणका साधन न करि सकै, यही दृढ करि दिखावै है
शार्दछन्द सर्व धर्ममयं क्वचित् क्वचिदपि प्रायेण पापात्मक क्वाप्येतद् द्वयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा
मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥४१॥ अर्थ-यह गृहस्थाश्रम है सो सर्वथा या जीवकू कल्याणकर्ता नाहीं। जैसे मतवाला आदमी अनेक उन्मत्त चेष्टा करै तैसे यह गृहस्थाश्रम बुद्धिवान जीवनिहं के अनेक चरित्र करै है। कबह तौ सामायिक पडिकना पोसहसंयुक्त उपवासादिककरि जीवकू केवल धर्ममई ही करै है। अर कबहक स्त्री सेवनादिककरि पापमयो करै है। अर कबहक पूजा प्रभावना यात्रा चैत्य चैत्यालय निर्मापण इत्यादि कार्यनिकरि पुण्य पाप दोऊमयी करै है । तातें यह गृहस्थाश्रम आंधेका जेवड़ी बटना, ता समान है, अथवा गज स्नानवत् है, बावरेकी सी चेष्टा है । ___भावार्थ-यह गृहस्थाश्रम जीवकू हितकारी नाहीं। उन्मत्त पुरुषकी चेष्टा है। कबहूं तौ सर्वथा दयारूप सामायिक पोसह तिनकरि धर्म ही
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