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२७ अहणक पूर्व हा पारग्रहका त्याग योग्य है अर्थ-निवृत्तिनै रहित जो तूं सर्व जगतकी माया ताकै अंगीकार करबे. की है अभिलाषा जाकै सो भावनितें तौ तें कछ ही न छोड्या । अर तेरे मुख तैं जो कछु बच्या सो भोजनकी अशक्ति” बच्या । जैसे राह रवि शशि कौं निगलता हुता सो निगल न सक्या तारौं बचे । ____भावार्थ-यह जीव ऐसा विषयासक्त अर तृष्णातुर है जो सर्व जगतकी विभूति अर त्रैलोक्यके पिषय याहि प्राप्ति होय तोऊ तृष्णा न मिटै । परन्तु जो कछु उबरयो सो भोगवेकी असमर्थता” उवरया। जैसे राहु रवि शशिकों भखि न सक्या तातें उबरै । ___ आगे कहै हैं कि दैवयोग” करुणारूप भया है चित्त जाका अर मोक्ष लक्ष्मीकी अभिलाषा करि हिंसाकी निवृत्ति कौं इच्छे है ऐसा तूं, सो तोहि बाल्यावस्था ही तें सर्वथा परिग्रहका त्याग ही करना, ऐसा दिखावै है :
शार्दूलविक्रीडित छन्द साम्राज्यं कथमप्यवाप्य सुचिरात् संसारसारं पुनः तत्त्यक्त्वैव यदि क्षितीश्वरवराः प्राप्ताः श्रियं शाश्वतीम् । त्वं प्रागेव परिग्रहान् परिहर त्याज्यान गृहीत्वापि ते । मा भूभौ तिकमोदकव्यतिकरं सपाय हास्यास्पदम् ।।४०॥ ____ अर्थ हे भव्य ! जैसे अगले बड़े बड़े राजानिमें कोइक पुण्यके उदयकरि चक्रवति पदका राज्य संसारविर्ष सार सो चिरकाल भोगि करि शाश्वती निर्वाण विभूति ताहि प्राप्त भए । निर्वाण पदका कारण परिग्रहका त्याग ही है। तारौं तू पहली ही परिग्रहका त्यागकरि कुमार अवस्था ही विषै मुनि पद धरि । बाल ब्रह्मचर्य समान और वस्तु नाहीं। ए परिग्रह तजिबे योग्य ही हैं। जिनि चक्रवत्तिपद भोग्या तिनिह तज्या, तब मुक्त भए। तारौं जे राज नाहीं करें, अर विवाह नाहीं करै तिनि समान और नाहीं। अर तेरे ऐसी अभिलाषा है जो इनि परिग्रहनि कू गहि करि बहुरि तर्जु सो ऐसी कामनाकरि तू भेषधारीके लाडू-कीच नांईसी कहवति कराय लोकनि हास्या मति करावै।
भावार्थ-एक भौतिक भेषधारी भिक्षाकौं भ्रमता हुता सो काहू नैं ताकै पात्र विर्षे लाडू डारया सो लेकरि जाय था, मारगमैं पग आखट्या सो लाडू पात्रमें तैं मलीन जायगाँ जाय पड्या। तब ता. लाडू उठाय
१. लाडू कोसी मु० ४०-९
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