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________________ आत्मानुशासन जानें पुण्य न उपाळ सो अधिक उद्यम करै, अति खेद खिन्न होइ तोऊ कछू ही न होय, ऐसा विचार विवेकी पुरुष या भव के कार्य विषै तो मंद उद्यमी हैं अर शीघ्र ही पर भवकै सुधारवे अथि अति प्रीति करि विशेष यत्न करै हैं। - आगे कोऊ प्रश्न कर है कि या भवके सुखके साधक जे विषय ते पूर्व . पुण्यके प्रसाद ते आय प्राप्त भये, तिनि विषै काहै को मंद उद्यमी होय, ताका समाधान करै हैं : शार्दूल विक्रीडित छंद कः स्वादो विषयेष्वसौ कटुविषप्रख्येष्वलं दुःखिना यानन्वेष्टुमिव त्वयाऽशुचिकृतं येनाभिमानामृतम् । आज्ञातं करणैर्मनः प्रणिधिभिः पित्तज्वराविष्टवत् कष्टं रागरसः सुधीस्त्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः।।३८॥ अर्थ-कड़वे विष तुल्य जे ए विषय तिनविषै का स्वाद है। तृष्णाकरि अत्यन्त दुःखौकी नाँई इन विषयनि कौं भोगवे निमित्त तें अपनां महंतता रूप अमृत मलीन कीया सो बड़ा कष्ट है । अर मनके सेवक जो ये इन्द्रिय तिनिका आज्ञाकारी होय विषयनिविष प्रवा। जैसे पित्तज्वरका वेठ्या जो प्राणी ताहि वस्तुनिका स्वाद विपरीत भासै सँसै तू सुबुद्धि है तौऊ विषयाभिलाषी भया थका राग रस करि विपरीति स्वादी भया। भावार्थ-जैसे पित्तज्वर वारे · वस्तुनिका स्वाद विपरीत भासै तैसे तू रागज्वरकरि विपरीत स्वादी भया । कडवे विष समांन ए विषय तिनिविर्षे कहा स्वाद है ? परन्तु तोहि स्वादु सा भास्या अर इनि ही कुँ मनोज्ञ जानि ढूढत भया । विषयाभिलाषकरि महा दुखी जो तू सो अपना महन्ततारूप अमृत अशुचि करता भया । जो विषयाभिलाषी होय महंतता सर्वथा न रहे। ___ आगै कहै हैं कि विषयासक्त जो तू अर काहू ही वस्तुविष नाहीं निवा है चित्त जाका सो तेरे भखिवेकी असामर्थता तें कछू उबरया, सो उबरया, भावनितें तौ तू सर्व भक्षी ही भया । अनिवृत्तेजगत्सर्व मुखादवशिनष्टि यत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तु वितनोर्भानुसोमवत् ।।३९।। १. जे विषय तृष्णा करि अत्यन्त मु० ३८-३ २. मलीन कीया अर मनके ज० पू० ३८-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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