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आशा रूपी गड्ढेका अन्त नहीं २५ आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ॥३६॥ अर्थ-अहो प्रांणी ! यह आशारूप औंडा खाडा सब ही प्राणीनके है। जाविषै समस्त त्रैलोक्यकी विभूति अणू समान सूक्ष्म है । जो त्रैलोक्यकी विभूति एक प्राणीके आय परै तौ हूं तृष्णा न भाजै। कौनकै कहा कैतायक आवै । तातें तेरै विषयकी वांछा वृथा है। ___ भावार्थ-त्रैलोक्य विषं विभूति तौ अल्प अर एक-एक जीवके आशा रूप गर्त कहिये आ खाड़ा अगाध जाविषै त्रैलोक्यकी विभूति अणू समान है सो एक हू जीवका खाडा कैसे पूर्ण होय । तांते तेरे विषयकी अभिलाषा वृथा है। __ आगें कहै हैं कि याहीतें विषय सुखर्फे छाँडि करि महा पुण्यके उपाजिवे निमित्त मुनि प्रवत्तें है । या विषयकै सुखकी प्रवृत्तिकरि भव-भवविर्षे नवे नवे शरीर धरै हैं। तांतें जै आत्मा-कल्याणविर्षे प्रवीण हैं ते विचारि आत्म-कार्यविर्षे प्रवतें हैं। जो समस्त प्रभाव है सो पुण्यका फल है सो ही दिखावै है।
शार्दूल विक्रीडित छंद आयुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत् पुण्यं पुरोपार्जितं स्यात् सर्व न भवेन्न तच्च नितरामायातितेऽप्यात्मनि । इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मंदोद्यमा द्रागागामिभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्तेतराम् ॥३७।।
अर्थ-या जीवके सुर मनुष्यादिवि दीर्घायु, लक्ष्मी, सुन्दर शरीर जो होय है सो पूर्व जन्म पुण्य उपार्जिवे करि हैं। जाने पुण्य उपााहोय ताकै सर्व होय। अर जो पुण्य उपाळ न होय तो अनेक उद्यम खेद करै तोऊ सर्वथा कछ ही न होय । तात कार्यविर्ष प्रवीण पुरुष विचारि करि या भवके कार्यविषै तो मंद उद्यमी हैं अर शीघ्र ही आगामी भवके अर्थि प्रीति सेती निरंतर अत्यन्त यत्न करेहैं।
भावार्थ-पूर्व भवविषै जानै दया, दीन, तपादिक करि विशेष पुण्य उपाळ होय ताहीकै दीर्घ आयु, सुन्दर काय, विभूत्यादिक होय है। अर १. मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ५६
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