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- आत्मानुशासन ... भावार्थ-भोग-तृष्णारूप आशा नदी ता मैं तूं अनादिकाल तैं बह्या
चल्या आवै है । सो याकै तिरिबेको आत्मज्ञान करि तूं ही समर्थ है, और उपाय नाहीं । ज्ञान ही हूँ आशा मिटै । तार्तं अब पराधीनता तजि शीघ्र ही स्वतंत्र होहु । आशा नदीकै पार जाहू, नातर संसार समुद्रकै मध्य डूबैगा या संसार सागरकै विषै कालरूप ग्राह अतिप्रबल है। सदा मुख फारै ही रहै है । ताका गंभीर मुख अतिविषम है । जगतकू निगलै है । तातें तू कालते बच्या चाहै, भवसागरके मध्य न परया चाहै तो आशारूप नदीके पार जाहु। - आगै कहै हैं कि विषयकी वांछाकरि व्याकुल भया जो तू सो अयोग्य हू कूँ भोगवै है-.. .. . .
शार्दूल विक्रीडित छन्द आस्वाद्याध यदुज्झितं विषयिभिर्व्यावृत्तकौतूहलैस्तद्भूयोऽप्यविकुत्सयन्नभिलषस्यप्राप्तपूर्व यथा । जन्तो! किं तव शान्तिरस्ति न भवान् यावद्दुराशामिमामंहःसंहतिवीरवैरिपृतनाश्रीवैजयन्ती हरेत् ॥५०॥
अर्थ-या संसारविर्षे नष्ट भयो है कौतूहल जिनकै ऐसे विषयी जीवनिनँ भोगिकरि जे पदार्थ छाँडै तिनकी तू बहुरि अभिलाषा करै है। ऐसा रागी भया है, जानिये कि मैं पूर्वं ए न पाये, सो ये तो तैं हू अनन्त बार भोगये अर अनंत जीवनि अनंतबार भोगए, सो तोय इनिकी सगे न आवै । पराई उच्छिष्ट तथा अपनी उच्छिष्ट सूग आवणी है। इनि विषयनिकरि तेरे तथा और जीवनिके कहां शांति है, कब हं नाहीं। जौलग ए दुराशा, अपराधके. समूहरूप प्रबल बैरी तिनकी सेनाकै वैजयंती कहिये जीतिकी ध्वजा समान जो आशा, ताहि तू न हरै तौलग तेरे शांति नाहीं। ____ भावार्थ-शांतिका मूल आशाका परित्याग है। जौलग अपराधरूप बैरीनिकी सेनाको ध्वजा समान यह आशा तू न हरै तौलग शांति कहाँ ? शांति कहाँ ? अर ए भोग वस्तुविषय जीवनि सेय छाँडी अर तैह अनंत बार सेय सेय छाँड़ी सो इनिकै सेवन तोहि सूग न आवै। तू तो ऐसा रागी भया सेवै है जानिये कि मैं पूर्व न पाई। यह जगतकी माया, जगतकी जूठि, अर तेरी जूठिका कहा सेवन करै, यह तो उचित नाहीं। १. सूग-ग्लानि ।
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