________________
मोहकी महिमा
२३ अर्थ-चिरकालवर्ती बडे मुनि तिनिके शिष्य उनके मार्ग विषै प्रवर्तते ऐसै केई सत्पुरुष अब भी प्रत्यक्ष पाईए हैं। कैसे हैं सत्पुरुष-आप मोहको कुलाचलवत् पृथ्वीका भर्ता है। जैसे कुलाचल पर्वत पृथ्वी कौं धारै है अर पृथ्वीविषै मोहकरि' रहित, तैसै सन्त पुरुष हितविर्षे लगाई पृथ्वीस्थित जीवनिकों पोखै है अर तिन जीवनिविषै मोह करि रहित है । बहुरि कैसे हैं—समुद्रवत् रत्ननिके निधि हैं, अर नाहीं है धनकी वांछा जिनकै ऐसे भी हैं। जैसैं समुद्र मोती आदि रत्ननिकी खानि है अर धनकी वांछा करि रहित है तैसै सन्त पुरुष सम्यग्दर्शन आदि रत्ननिकी खानि हैं अर धनादिककी वांछाकरि रहित है । बहुरि कैसै हैं ? आकाशवत् किनिहू करि स्पर्शित नाहीं हैं। अर विभुता जो परम महंतताकरि सर्व जगतकी विश्रांतिकै अथि होइ रहै हैं । जैसै आकाश कोई पदार्थनिकरि लिप्त नाही, अखंडपनाकरि सर्व जगतका रहनेका स्थान है, तैसै सन्त पुरुष कोई पर भावनि करि लिप्त नाहीं, अर महंतपनाकरि सर्व जगतका दुःख दूरि करनेका ठिकाना है । ऐसै केई सत्पुरुष अब भी पाईए हैं।
भावार्थ-जिस कालविषै इस ग्रंथकी रचना भई है तिस कालविषै यथार्थ मुनि धर्मके धारक केई जीव रहि गए अर शिथिलाचारी बहुत भए। तहाँ काहू ने ऐसी तर्क करी जो मुनिधर्म बहुत कठिन है ताका आचरणकी चौथे कालविषै भई बातें ही सुनिए हैं । परंतु कोई आचरनेवाला तौ दीसता नांहीं। ताकौ कहै है:-अब भी कोई कोई मनि धर्मका धारक प्रत्यक्ष पाईए है। तूं धर्म का अभाव करि अपना शिथिलाचारको पुष्ट काहैको करै है। कोई क्षेत्र काल विषै धर्मात्मा थोरे होंहि वा न होंइ तौ धर्मका' स्वरूप तो यथावत् ही मानना योग्य है। ___ आगें इन संतनिकरि आचरया जो मारग तिसतै जुदा जु यह लोक सो संसारकी स्थिति को न देखता संता कहा करै है, सो कहै है:
शिखरिणी छंद पिता पुत्रं पुत्रः पितरमभिसंधाय बहुधा ।
विमोहादीहेते सुखलवमवाप्तु नृपपदम् ।। अहो मुग्धो लोको मृतिजननदंष्ट्रान्तरगतो। . न पश्यत्यश्रान्तं तनुमपहरन्तं यमममुम् ॥३४॥ १. मोहकर ज० पू० ३३-५. २. थोरे होइ तो धर्मका ज० उ० ३३-७.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org